श्रीमद् भगवत गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ’ गीता 3/5 अर्थात, कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता है ! अर्थात कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग किसी भी मार्ग में साधक कर्म किये बिना नहीं रह सकता है !
यहाँ कश्चित्, क्षणम् और जातु ! यह तीनों ही विलक्षण पद हैं ! इनमें कश्चित् पद का प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रहता, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी ! यद्यपि ज्ञानी का कर्म करते समय अपने कहलाने वाले शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता है ! फिर भी उसके शरीर से भी हरदम क्रिया होती रहती है !
क्षणम् पद का प्रयोग करके भगवान् यह कहते हैं कि यद्यपि मनुष्य ‘मैं हर दम कर्म करता हूँ’ वह ऐसा नहीं मानता है ! फिर भी जब तक वह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानता है ! तब तक वह एक क्षण के लिये भी कर्म के बंधन से मुक्त हुये बिना भी नहीं रह सकता है !
जातु पद का प्रयोग करके भगवान् कहते हैं कि जाग्रत्, स्वप्न्, सुषुप्ति, मूर्च्छा आदि किसी भी अवस्था में मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता है ! इसका कारण भगवान् इसी श्लोक के उत्तरार्ध में अवशः पद से बताते हैं कि प्रकृति के परवश होने के कारण उसे कर्म करने ही पड़ते हैं !
प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है ! साधक को अपने लिये कुछ नहीं करना है ! जो विहित कर्म सामने आ जाये बस उसे केवल दूसरों के हित की दृष्टि से बिना किसी कामना के कर देना चाहिये ! परमात्म प्राप्ति का उद्देश्य होने से साधक निषिद्ध-कर्म तो कर ही नहीं सकता है ! बहुत-से मनुष्य केवल स्थूल शरीर की क्रियाओं को कर्म मानते हैं ! पर गीता मन के क्रियाओं को भी कर्म मानती है !
गीता ने शारीरिक, वाचिक और मानसिक रूप से की गयी मात्र क्रियाओं को भी कर्म माना है ! शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः (गीता 18 ! 15) ! जिस शारीरिक अथवा मानसिक क्रियाओं के साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है ! वह ही सब क्रियायें कर्म बंधन बनकर उसे बाँधने वाली होती हैं ! अन्य क्रियायें नहीं !
मनुष्यों की एक ऐसी धारणा बनी हुई है कि जिसके अनुसार वह बच्चों का पालन-पोषण तथा आजीविका व्यापार, नौकरी, अध्यापन आदि को ही कर्म मानते हैं और इनके अतिरिक्त खाना-पीना, सोना, बैठना, चिन्तन करना आदि को वह कर्म नहीं मानते है ! इसी कारण कई मनुष्य व्यापार आदि कर्मों को छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा हूँ ! परन्तु यह उनकी भारी भूल है !
शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी स्थूल शरीर की क्रियायें जैसे नींद, चिन्तन आदि सूक्ष्म-शरीरकी क्रियायें साधना और समाधि आदि कारण-शरीर की क्रियायें यह सब भी कर्म ही हैं ! जब तक शरीर में अहंता-ममता है ! तब तक शरीर से होने वाली सभी शारीरिक अथवा मानसिक क्रियायें ‘ कर्म ‘ हैं ! कारण है कि शरीर प्रकृति का अंश है और प्रकृति कभी अक्रिय नहीं होती है ! अतः मनुष्य यदि शरीर में है तो वह भी अक्रिय नहीं हो सकता है !
अत: अहंता-ममता रहते हुये कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र के लिये भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है ! चाहे वह अवस्था प्रवृत्ति की हो या निवृत्ति की !
इसलिये कर्मफल के बंधन से छुटकारा के लिये सर्वप्रथम कामना रहित होना पड़ेगा ! जो अवस्था निरंतर साधना और अभ्यास से प्राप्त होती है ! इसके लिये किसी तत्वज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन में निरंतर कामना रहित कर्म की साधना और अभ्यास करना पड़ता है !
तत्व ज्ञानी गुरु ही एक मात्र वह व्यक्ति होता है ! जो अपने जीवन के अनुभव और साधना के अभ्यास से आपको कामना विहीन कर्म करने का प्रशिक्षण दे सकता है ! क्योंकि वह स्वयं उस मार्ग पर चला होता है ! तत्व ज्ञानी गुरु प्राप्त होना भी ईश्वर की कृपा का ही अंश है !
जब तक व्यक्ति कामना विहीन कर्म करने की कला नहीं सीख लेता है ! तब तक वह कभी भी कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है ! इसलिये यदि भविष्य के प्रारब्ध निर्माण के बंधन से बचना है ! तो आपको कामना विहीन कर्म का अभ्यास करते हुये कर्म बंधन से मुक्त होना पड़ेगा ! तभी आप सृष्टि में आवागमन के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं ! यही एकमात्र उपाय है !
जो व्यक्ति कामना सहित किया गया कर्म करता है ! वह चाहे ज्ञान योग का मार्ग अपनाये, कर्म योग का मार्ग अपनाये, भक्ति योग का मार्ग अपनाये या फिर राजयोग का मार्ग अपनाये वह कामना पूर्ण कर्म करने वाला व्यक्ति कभी भी अपने कर्म के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है !