इस दुनियां में बहुत से रहस्य हैं ! बहुत सी तांत्रिक साधनायें हैं ! जिनके बारे में हमें पता नहीं होता है और जो सामान्य व्यक्तियों की निगाहों से दूर ही रहती हैं ! ऐसी ही एक रहस्यमयी तिब्बती साधना है – लुंगगोम !
लुंग का अर्थ फेफड़ा, हवा, वायु या महत्वपूर्ण ऊर्जा ! जो योगियों के अनुसार प्राण वायु का प्रतीक है ! गोम का अर्थ है ध्यान या केन्द्रित एकाग्रता ! अत: लुंगगोम का अर्थ उस व्यक्ति से है जिसने केन्द्रित ध्यान एवं प्राणायाम के द्वारा वायु तत्व की आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त कर ली हो !
लुंगगोम असामान्य गति की साधना है ! यह तिब्बत की एक विशिष्ट साधना की वह प्रक्रिया है जो कि मूलतः प्राणायाम से संबंध रखती है ! इस प्रक्रिया में प्राणों के विशिष्ट यौगिक अभ्यास के साथ ही मन की एकाग्रता का भी अभ्यास करना पड़ता है ! तिब्बत के मध्ययुगीन साधकों में से अनेक साधक इस साधना में पूर्ण पारंगत थे और स्वल्पकाल में ही सैकड़ों मील की यात्रा पूरी कर लेते थे !
संभवतः पवन पुत्र हनुमान जी ने भी यह सिद्धि प्राप्त की थी ! तभी वह वायु मार्ग से लंका गये थे और लक्ष्मण के मूर्छित होने पर इसी साधना के प्रभाव से तत्काल हिमालय जा कर संजीवनी बूटी के पहाड़ को ला सके थे ! साथ ही राम लक्ष्मण को अहिरावन के पाताल लोक से वायु मार्ग से लेकर आये थे !
11वीं सदी के तिब्बती संत मिंलारेस्पा और उनके लामा गुरु एवं उनके शिष्य त्रपा घोड़े की गति से भी तीव्रतर गति से वायु मार्ग से ही यात्रा कर लेते थे ! मिंलारेस्पा ने अपने ग्रन्थ में स्वयं कहा है कि मैंने एक बार एक मास की यात्रा करने वाले गंतव्य की वायु मार्ग से स्वल्प समय में ही यात्रा पूरी कर ली थी ! जिसे इस सिद्धि के पूर्व मुझे एक माह में पूरा करना पड़ा था !
मेरे पिता जी के बाबा पंडित राम सहाय मिश्र के गुरु जी वर्ष 1941 तक चित्रकूटधाम से वायु मार्ग द्वारा ही सशरीर मेरे पैतृक ग्राम कबरई जिला महोबा में उनकी हवेली तक आते और जाते थे ! जिसका वर्णन आज भी मेरे जीवित पिता जी करते हैं !
अलेक्जेंड्रा डेविड नील नामक पाश्चात्य साधिका ने ऐसे तीन लुंगगोमपा साधकों को यात्रा करते समय स्वयं देखा था !
साधना की इस पद्धति में असामान्य गतिशीलता या त्वरित स्फूर्ति का अभ्यास नहीं करना पड़ता है ! परन्तु अपनी कायिक सहनशक्ति में असामान्य वृद्धि का अभ्यास करना पड़ता है ! इस साधना में पारंगत साधक एक क्षण के लिये भी विश्राम ग्रहण किये बिना कई दिनों तक अहर्निश वायु यात्रा करते रहते हैं ! इस यौगिक पद्धति का अभ्यास एवं प्रशिक्षण त्शांग प्रान्त के शालू गोम्पा में प्राचीन काल में करवाया जाता था ! इसके प्रशिक्षण के अन्य केंद्र भी तिब्बत में आज भी स्थित हैं !
महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम को परिभाषित करते हुए कहा है कि “आसन की सिद्धि के अनंतर श्वास और प्रश्वास की गति का अवच्छेद हो जाना ही प्राणायाम है !” इसके द्वारा प्रकाशवरण क्षीण होता है और धारणाओं में मन की योग्यता अविर्भूत होती है !
‘घेरण्ड संहिता’ में कहा गया है कि प्राणायाम से लाघव संप्राप्त होता है ‘प्राणायामाल्लाघवं च’ ! जिससे व्यक्ति वायु मार्ग गमन करने में सक्षम हो जाता है !
तिब्बती योग की इस पद्धति में प्राणायाम द्वारा इसी लाघव या लघिमा प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है ! योगशास्त्र में यह भी कहा गया है कि वायु एवं अग्नितत्व पर समुचित नियंत्रण प्राप्त कर लेने पर साधक में आकाशोड्डयन की क्षमता अविर्भूत होती है !
प्राणायाम द्वारा भूतत्व एवं जलतत्व की मात्रा को लगातार शरीर में से घटाया बढ़ाया जा सकता है और वायु तत्व को बढ़ा कर यह सिद्धि प्राप्त होती है ! उसका परिणाम यह होता है कि शरीर इतना हल्का हो जाता है कि वह हवा में स्वत: ही उड़ने लगता है और तब व्यक्ति सैकड़ों मील प्रति घंटे की त्वरित गति से आकाश में यात्रा कर सकता है !
भारतीय शैव योग पध्यती में भी इसके प्रमाण हैं ! शिवसंहिताकार में कहा गया है कि इस प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा योगी प्रारंभ में हाथ संचालित करते ही मेढ़क की भांति कूदने लगता है और सिद्ध होने पर पद्मासन लगाये – लगाये पृथ्वी छोड़कर किसी भी ऊचाई तक आकाश में उड़ने लगता है !
ततोsधिकतराभ्यासाद्गगने चर साधकः !!
योंगी पद्मासनस्थोडिप भुवमुत्सृज्य वर्तते !!
प्राणायाम में सौकर्य (दक्षता) हेतु जो नाड़ी शोधन किया जाता है ! उसके दो प्रकार हैं ! 1 -समनु 2 -निर्मनु !
लुंगगोम की साधना में समनु प्राणायाम विधि का ही आत्मीकरण किया जाता है ! इसके अनुसार धूम्रवर्ण एवं सतेज वायु बीज ‘यं’ का ध्यान करके इसका जप करते हुए ही पूरक, कुंभक एवं रेचक करना पड़ता है !
तिब्बती पद्धति में अनुभवी गुरु शिष्य को अनेक वर्षों तक विविध प्राणायामों का अभ्यास करवाते हैं और शरीर में वायु पर यथेष्ट नियंत्रण स्थापित हो जाने पर उसे दौड़ने की शिक्षा देता हैं ! इस साधना में गुरु ‘त्रपा’ को एक गोपनीय मंत्र भी प्रदान करते हैं ! जिसे शिष्य इस अभ्यास के अन्तराल में सस्वर उच्चारित करता हुआ अपने विचारों को उसी में केन्द्रित करने का प्रयास करता है !
जिस समय साधक यात्रा करता है ! उस समय वह श्वासोच्छ्वास के साथ इस गोपनीय मंत्र का मानसिक गायन तो करता ही है ! साथ ही साथ यह भी ध्यान रखता है कि उसका प्रत्येक चरण मंत्र एवं प्राणायाम पर बराबर पड़े ! इस समय यात्री को मौन रहना पड़ता है और इतस्तः वीक्षण (यहाँ-वहां देखना) छोड़ना पड़ता है ! उसे अपनी दृष्टि किसी सुदूरस्थ वस्तु तथा तारा पर केन्द्रित करके यात्रा करनी होती है ! चिर काल के अभ्यास के बाद साधक के चरण पृथ्वी का संस्पर्श छोड़कर आकाश में निराधार यात्रा करने लगते हैं !
अभ्यास के समय साधक को किसी लम्बे चौड़े रेगिस्तानी मैदान में ले जाकर इसका प्रशिक्षण दिया जाता है ! सामान्यतः ऐसे अभ्यासार्थियों को ज्योत्स्नावती निशा (चांदनी रात) में जगमगाते तारों से भरे आकाश के नीचे संध्या के साथ प्रशिक्षित किया जाता है और इसी समय उन्हें यात्रा करने का आदेश दे दिया जाता है, क्योंकि दोपहर एवं तृतीय प्रहर में तथा जंगलों,घाटियों एवं पहाड़ों से भरे अंचलों में केवल सिद्धहस्त गुरुगण ही यात्रा कर पाते हैं अन्य नहीं !
इस साधना में यात्रा के समय प्रत्येक साधक को अपनी दृष्टि किसी सुदूरस्थ तारे पर केन्द्रित करके अपनी यात्रा प्रारंभ करनी पड़ती है और तारे के डूब जाते ही यात्रा बंद कर देनी पड़ती है ! जब साधक को प्रगाढ़ योग निद्रा एवं जाग्रत सुषुप्ति का अभ्यास हो जाता है ! तब तारों के डूब जाने पर भी साधक को अपनी यात्रा रोकने के लिये विवश नहीं होना पड़ता !
इसका कारण यह है कि ध्यान एवं एकाग्रता की इस प्रगाढ़ावस्था में तारे के डूब जाने पर भी ऐसे यात्री साधकों की दृष्टि उस तारे को ध्यान की एकाग्रता के कारण देखती ही रहती हैं और साधक अपनी इस प्रगाढ़ योगनिद्रा में शरीर के भार का किंचिदपि अनुभव न करता हुआ पृथ्वी से ऊपर वायु में तैरता हुआ आकाश में अखंड यात्रा करता रहता है !
यही वायु मार्ग यात्रा की सिद्धि का मार्ग है !