मूर्तिपूजा कितनी सही कितनी गलत ? जानिए ! मूर्तिपूजा का इतिहास। Yogesh Mishra

मूर्तिपूजा का इतिहास

मूर्तिपूजकों तथा मूर्तिभंजकों के संघर्षों से इतिहास भरा पड़ा है। प्रारंभ में मूर्तिपूजकों के धर्म ही थे। मूर्तिपूजकों के धर्म के अंतर्गत ही मूर्तिभंजकों की एक धारा भी प्राचीनकाल से चली आ रही थी। मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं- एक वे जो वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे, तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के मंदिर बनाए। ऐसे दुनियाभर में सात मंदिर थे। दूसरे वे, जो अपने पूर्वजों या प्रॉफेट के मरने के बाद उनकी याद में मूर्ति बनाते थे। तीसरे वे, जिन्होंने अपने-अपने देवता गढ़ लिए थे। हर कबीले का एक देवता होता था। कुलदेवता और कुलदेवी भी होती थी।

शोधकर्ताओं के अनुसार अरब में मक्का में पहले मूर्तियां ही रखी होती थीं। वहां उस काल में बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह और महाराजा बलि सहित लगभग 360 मूर्तियां रखी हुई थीं। पहले संपूर्ण अरब ही मूर्तिपूजकों का स्थान था। तुर्किस्तान पहले नागवंशियों का गढ़ था। यहां नागपूजा का प्रचलन था। उत्तरी तुर्किस्तान को पुराणों में काम्बोज कहा गया है। तुर्क कश्यप गोत्रिय नागवंशी हैं। भारत में तुर्कों ने राज किया है।

भारत में वैसे तो मूर्तिपूजा का प्रचलन पूर्व आर्य काल (वैदिक काल) से ही रहा है। भगवान कृष्ण के काल में नाग, यक्ष, इन्द्र आदि की पूजा की जाती थी। वैदिक काल के पतन और अनीश्वरवादी धर्म के उत्थान के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ गया।

वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इन्द्र और वरुण आदि देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं।

भगवान कृष्ण के काल में लोग इन्द्र नामक देवता से जरूर डरते थे। भगवान कृष्ण ने ही उक्त देवी-देवताओं के डर को लोगों के मन से निकाला था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति-शिव) की मूर्ति का साक्ष्य मिला है ।

प्राचीन अवैदिक मानव पहले आकाश, समुद्र, पहाड़, बादल, बारिश, तूफान, जल, अग्नि, वायु, नाग, सिंह आदि प्राकृतिक शक्तियों की शक्ति से परिचित था और वह जानता था कि यह मानव शक्ति से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है इसलिए वह इनकी प्रार्थना करता था। बाद में धीरे-धीरे इसमें बदलाव आने लगा। वह मानने लगा कि कोई एक ऐसी शक्ति है, जो इन सभी को संचालित करती है।

पूर्व वैदिक काल में वैदिक समाज जन इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़े रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। वे यज्ञ द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे। हिन्दू धर्म मूलत: अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद का समर्थक रहा है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता है। अथर्ववेद की रचना के बाद हिन्दू समाज में दो फाड़ हो गई- ऋग, यजु और साम, अथर्व।

इस तरह वेदों में ईश्वर उपासना के दो रूप प्रचलित हो गए- साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि ऋषि-मनीषियों ने दोनों उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया था।

शिवलिंग की पूजा का प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्ति‍यों को अपार जन-समर्थन मि‍लने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं।

मान्यता के अनुसार महाभारत काल तक अर्थात द्वापर युग के अंत तक देवी और देवता धरती पर ही रहते थे और वे भक्तों के समक्ष कभी भी प्रकट हो जाते थे। तब उनके साक्षात रूप की पूजा या प्रार्थना होती थी। लेकिन कलयुग के प्रारंभ होने के बाद उनके विग्रह रूप की पूजा होने लगी। विग्रह रूप अर्थात शिवलिंग, शालिग्राम, जल, अग्नि, वायु, आकाश और वृक्ष आदि की।

अब सवाल यह उठता है कि हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता भी मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं तो हिन्दू क्यों मूर्ति या पत्थर की पूजा करते हैं और इस पूजा का प्रचलन आखिर कैसे, क्यूं और कब हुआ?
भारत में जो लोग अनीश्वरवादी थे, वे निराकार ईश्‍वर के विरुद्ध थे। उन्होंने अपने प्रॉफेटों, पूर्वजों आदि की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया। इन अनीश्वरवादियों में जैन, चार्वाक, न्यायवादी आदि धर्म के लोग थे। पार्श्‍वनाथ के काल में हिन्दू जैन मंदिरों में मूर्तिपूजा करने लगा, क्योंकि पहले सिर्फ शिवलिंग की पूजा का प्रचलन ही था, लेकिन लोगों के समक्ष अब दूसरा विकल्प भी था।

महावीर स्वामी और बुद्ध के जाने के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ा और हजारों की संख्या में संपूर्ण देश में जैन और बौद्ध मंदिर बनने लगे। जिसमें बुद्ध और महावीर की मूर्तियां रखकर उनकी पूजा होने लगी। इन मंदिरों में हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाने लगा जिसके चलते बाद में राम और कृष्ण के मंदिर बनाए जाने लगे और इस तरह भारत में मूर्ति आधारित मंदिरों का विस्तार हुआ।

मूर्तिपूजा का पक्ष : मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्तिपूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्ति की पूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ही जीवन में सफलता का आधार है।

प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिरों के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि ये मंदिर किस तरह के होते थे। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।

मूर्तिपूजा के पक्ष में पं. दीनानाथ शर्मा लिखते हैं- ‘जड़ (मूल) ही सबका आधार हुआ करती है। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतापूर्वक उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है। परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रय स्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है। हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्तिपूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्याप्त चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं। आप जिस बुद्धि को या मन को आधारभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं, क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है?

वैसे तो पूरा विश्व ही मूर्तिपूजक है। पंचभूतों से निर्मित किसी आकार पर श्रद्धा स्थिर करना मूर्तिपूजा है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, पुस्तक, आकाश इत्यादि सभी मूर्तिपूजा के अंतर्गत हैं। कौन मूर्तिपूजक नहीं है?

यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारत में सबसे अधिक मूर्तियां हैं, मंदिर हैं; किंतु भारत मूर्तिपूजक नहीं है। ये मंदिर, मूर्तियां आध्यात्मिक देश भारत में अध्यात्म की शिशु कक्षाएं हैं लेकिन लोग कलयुग के प्रभाव से अध्यात्म की अगली कक्षा में जाना ही नहीं चाहते तो कोई क्या करे

अपने बारे मे परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश मिश्र जी – 09453092553

नोट ( ज्योतिष के माध्यम से जुटाया गया धन सनातन ज्ञान पीठ संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए खर्च किया जाता है !
जिसमे गौ रक्षा,गंगा-गोमती जैसी नदियों की सफाई,पर्यावरण संरक्षण,ज्योतिष और आध्यात्मिक शोधकार्य शामिल है)

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

 -: सम्पर्क :-
-090 444 14408
-094 530 92553

Share your love
yogeshmishralaw
yogeshmishralaw
Articles: 1766

Newsletter Updates

Enter your email address below and subscribe to our newsletter