प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि ज्योतिष शास्त्र पर नवीन शोध करते रहे हैं ! आज भी यह शोधकार्य निरंतर चल रहा है, और युगों-युगों तक होता रहेगा ! फलित ज्योतिष में कुण्डली का फलादेश करने की अनेक पद्धितियां हैं ! पाश्चात ज्योतिष में सायन कुण्डली को मुख्य मानते हैं, और भारत में निरायन कुण्डली प्रचलित है ! आयनांश में भी काफी मतभेद है ! हर कोई अपने ही आयनांश का प्रयोग कराना चाहता है ! अनेक मैगजीन में इस विषय पर बहुत लेख लिखे गये परन्तु आयनांश का मसला अभी भी हल नहीं हो सका ! इस पर भी बस नहीं भाव कुण्डली के भी बनाने में मतभेद हैं !
कई ज्योतिषी एक भाव के स्पष्ट से दूसरे भाव के स्पष्ट तक को ‘भाव’ मानते हैं ! जैसे ‘प्रथम भाव’ लग्न स्पष्ट के अंश कला से द्वितीय स्पष्ट के अंश कला तक है ! कई ज्योतिषी भाव स्पष्ट को उस भाव का मध्य मानते हैं, इनके अनुसार लग्न स्पष्ट प्रथम भाव का मध्य हुआ और इस प्रकार प्रथम भाव लग्न स्पष्ट से लगभग 15 अंश पीछे से आरंभ होकर 15 अंश आगे तक हुआ ! इसी प्रकार ज्योतिषियों में आपसी मतभेद भी हैं ! कौन ठीक है, कौन गलत है? यह तो ईश्वर ही जानते हैं !
यह मतभेद क्यों नहीं दूर हो सकता है ! इसका सीधा सा उत्तर यह है कि जब तक ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन के लिए कोई महाविद्यालय नहीं बन जाता और लाखों व्यक्तियों की कुण्डलियों को इकट्ठा करके उन पर शोघ कार्य नहीं होता, तब तक यह नहीं हो सकता ! विद्वान लाखों कुण्डलियों का निरीक्षण करें और अयनांश का यह मतभेद दूर करें ! इस रिसर्च की सहायता से ज्योतिष शास्त्र के सरल नियम बनाये जा सकते हैं और ऐसे सरल नियमों के प्रयोेग से ही इस शास्त्र का जानने वाला ज्योतिषी किसी जातक की कुण्डली देखकर उसके भविष्य के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकता है ! इसी में ही इस शास्त्र की भलाई है !
तब ही आमलोग इस विद्या को समझ सकेंगे ! परन्तु ऐसा नहीं हो रहा है ! एक अकेला ईमानदार विद्वान अपने जीवन में थोड़ी बहुत रिसर्च और अनुभव के आधार पर कुण्डली देखकर कुछ न कुछ बता सकता है परन्तु उसके बाद उसका यह जीवन भर का परिश्रम धरा का धरा रह जाता है ! जहां तक कि यदि उसकी ज्योतिष संबंधी पुस्तकों को जिन्हें वह अपने जीवनकाल में प्राणों से भी प्रिय समझता था, दीमक ही चाट जायें तो कोई बड़ी बात नहीं !
आप ज्योतिष की कोई भी पुस्तक उठायें, उसको पढ़ें ! एक बार नहीं दो बार नहीं अनेक बार पढ़ें, अर्थात् आप भले ही कितनी पुस्तकों का अध्ययन कर लें ! परन्तु जब आपके सामने एक कुण्डली आयेगी तो आप केवल इतना ही बतायेंगे, वाह क्या योग है, राज योग, सुनफा योग, अनफा योग आदि उत्तम राजयोग हैं ! परंतु इस वाह से या केवल राजयोगों के नाम बताने से न तो उस जातक की संतुष्टि होती है और न ही उस जातक को किसी प्रकार का लाभ ही होता है !
बाजार में उपलब्ध हर ज्योतिष की पुस्तक में ग्रहों के योग और इनके फलादेश इस प्रकार दिये हैं कि आप किसी भी योग का फलादेश अपनी इच्छानुसार घुमा- फिराकर कह सकते हैं ! आप ज्योतिष शास्त्र की जितनी भी पुस्तकें पढेंगे उन सभी में लगभग एक जैसा ज्ञान ही प्राप्त होगा ! अर्थात् बहुत कठिनाई से दो-चार पृष्ठ ही आपके लिये नयी जानकारी उपलब्ध करवाने वाले होंगे !
वस्तुतः हमारे ऋषियों ने अपने ही ज्योतिषीय ग्रन्थों में ज्योतिषीय सिद्धांत लिखते समय यह लिखा है कि सभी ज्योतिष के नियम-सिद्धांत अटल नहीं हैं, अपितु परिवर्तनीय हैं ! देश-काल और परिस्थिति के अनुसार इन सिद्धांतों में परिवर्तन करने आवश्यक होंगे ! जो की भविष्य के विद्वानों को करते रहने होंगे !
आज आवश्यकता है विद्वानों को शास्त्रों के इस वचन की ओर ध्यान देने की ! इसके लिये एक उदाहरण प्रस्तुत है- मान लीजिये किसी जातक की कुण्डली में विदेश जाने का योग दिखाई देता है ! तब आज के समय में वह योग दुःख करने योग्य नहीं होगा, बल्कि प्रसन्नता का सूचक होगा ! क्योंकि अधिकांश जातक विदेश जाने से अपना भाग्योदय होना समझते हैं ! जबकी यही योग आज से 50 वर्ष या और अधिक पहले मजबूरी, कष्टदायी अथवा दुःखदायी माना जाता था ! क्योंकि उस समय सूचना या संचार के माध्यम ही अति सीमित थे !
जातक के विदेश जाने का अर्थ होता था- महीनों की कष्टप्रद समुद्री यात्रा ! पता नहीं यात्री सुरक्षित पहुँच भी पायेगा या नहीं? यदि इस यात्रा में जातक सुरक्षित पहुँच भी गया तो बहुत समय तक जातक के माता-पिता अथवा संबधियों को सुखद् समाचार की प्रतीक्षा रहती थी ! और आज! वही यात्रा आनंद देने वाली तथा कुछ ही घंटों में कर ली जाती है ! सूचना और संचार माध्यम इतने हैं कि जब चाहें मोबाईल फोन से समाचार ले-दे सकते हैं ! यह सब विचार समय के साथ करने योग्य हैं ! प्राचीन ग्रन्थकारों को भला कैसे पता होगा की कुछ वर्ष पूर्व यात्रा अथवा संचार के साधन इतने तीव्र होंगे कि विदेश यात्रा का अर्थ ही बदल जायेगा !
प्राचीन ग्रन्थों के ज्योतिषीय नियमों में कोई विशेष परिवर्तन न होने के और भी कुछ कारण हैं जैसे- क्योंकि एक विद्वान ज्योतिषी अपने जीवन में जब हजारों कुण्डलियों का विश्लेषण कर लेता है, तब उन कुण्डलियों से प्राप्त अपने अनुभव सरलता से किसी को बाँटना नहीं चाहता ! यदि अपने किसी प्रिय शिष्य को बाँटना भी चाहता है तो उससे उसे अनेक आशाऐं होती हैं !
इस विद्या के विकास में एक बाधा यह भी रही है कि गत कुछ सौ वर्षों से समाज के एक वर्ग विशेष का विश्वास यह भी रहा था कि यह विद्या उनके अतिरिक्त अन्य किसी वर्ग के लिये नहीं है ! दूसरे किसी वर्ग का इस विद्या पर अधिकार नहीं होना चाहिये !
मै यह नहीं कहता की आज संसार में इस विद्या के विद्वानों की कमी है ! ऐसे अनेक विद्वान इस धरती पर हैं ! परंतु आज की आवश्यकता है उन सभी विद्वानों को आगे आकर ईमानदारी से इस विद्या के विकास में अपनी भागीदारी निभानी चाहिये !