कलयुग में सबसे सफल है “शाबर ज्योतिष” | Yogesh Mishra

भगवान शिव से बड़ा ज्योतिष और तंत्र का जानकार इस पृथ्वी पर कभी कोई पैदा नहीं हुआ ! यहां तक मैं कह सकता हूं कि रावण ने भी भगवान शिव की कृपा से ज्योतिष और तंत्र की जानकारी प्राप्त की थी ! लेकिन भगवान शिव के बराबर रावण भी ज्योतिष और तंत्र का जानकार नहीं था ! भगवान शिव ज्योतिष और तंत्र के निर्माता हैं ! विश्व में अभी तक जितने भी तांत्रिक व ज्योतिषी हुए हैं वह कहीं न कहीं शिव की उपासना शक्ति रूप या अन्य रूपों में किये हैं, इसीलिए भगवान शिव को ‘महाकाल’ कहा गया है !

क्योंकि भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों की एक साथ एक दृष्टि से जानने का सामर्थ भगवान शिव में ही है ! भगवान शिव ज्योतिष व तंत्र के जिस सामर्थ्य और ज्ञान को रखते हैं, वह सामर्थ्य किसी भी अन्य देवी-देवता में नहीं दिखाई देता है ! किंतु काल का प्रवाह है कि भगवान शिव के इस ज्ञान को अंश रूप में जिन जिन देवी-देवताओं और ऋषि मुनियों ने अपने-अपने तरीके से व्याख्यातित किया है, हम आज उन्हीं ऋषि-मुनि, देवी-देवताओं के बताये ज्योतिष के अनुसार ही अपना भूत भविष्य वर्तमान जानना चाहते हैं ! यदि ज्योतिष का समग्र लाभ उठाना है तो भगवान शिव द्वारा निर्मित “शाबर ज्योतिष” का गहन अध्ययन करना चाहिये ! शिव पुराण से लेकर विभिन्न देवी-देवताओं और ऋषि मुनियों द्वारा रचित शिव आराधना के अनेकों ग्रंथ में “शाबर ज्योतिष” का वर्णन कई रूप में प्रगट या अप्रगट तरीके से मिलता है ! मेरे अनुसार शाबर ज्योतिष पद्धति ही समग्र और सर्वश्रेष्ठ है ! ऐसा मेरा मानना है !

किन्तु “शाबर ज्योतिष” सटीक होने के बाद भी क्यों लोक प्रिय नहीं हुई जबकि सतयुग में गणेश, त्रेता में रावण, द्वापर में दैत्यराज बालि के पुत्र वाणासुर, कलयुग में गुरु गोरखानाथ, जैसे “शाबर ज्योतिष पध्यति” के प्रकांड ज्ञानता हुये हैं ! फिर भी आज “शाबर ज्योतिष” पध्यति लगभग विलुप्त क्यों है ? इसका जबाब यह है कि आज के युग में लोगों में साधना करने का समर्थ कम है इसलिये इस ज्योतिष पध्यति पर लोगों ने कार्य किया है !
इसके अलावा यह ज्ञान सामान्यतया सब को सहज ही प्राप्त नहीं होता है | इसके लिये कुछ विशेष ग्रह योग भी कुण्डली में होना आवश्यक है ! शाबर ज्योतिष की साधना भी एक प्रकार से ईश्वर द्वारा आदेशित कर्म ही है, अतः ‘नवम धर्म भाव’ के साथ-साथ ‘दशम कर्म भाव’ द्वारा इस क्षेत्र में सफलता या असफलता को जाना जा सकता है । साधना की प्रकृत्ति, प्रवृत्ति और सफलता हेतु नवम तथा दशम भाव के साथ साथ पंचम देव कृपा के भाव का भी अवलोकन करना चाहिये ।

जन्म पत्री का अवलोकन करने के पश्चात् तुरन्त गणना करके शीघ्र निर्णय लेकर त्वरित भविष्यवाणी करने के लिए गणित व निर्णय शक्ति के कारक बुध का बलवान होना भी अति आवश्यक है। गुरु व बुध की युति या इनका स्थान परिवर्तन योग इस प्रकार की योग्यता से सम्पन्न होने के लिए श्रेष्ठ होता है। इसके अतिरिक्त यदि बुध धनु या मीन अर्थात् गुरु की राषियों में स्थित हो तथा गुरु स्वयं केन्द्र में स्थित हो तो भी उत्तम है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बृहस्पति को समस्त पराविद्याओं का गुरु माना गया है तथा नवम् भाव को उच्च षिक्षा व अध्यात्म विद्या का कारक भाव माना गया है। चन्द्रमा अध्यात्म का कारक ग्रह है, नवम भाव अध्यात्म का कारक भाव है तथा बृहस्पति नवम् भाव का कारक होने के अतिरिक्त वाणी व बुद्धि भाव का कारक तो है ही साथ ही अध्यात्म विद्या का आचार्य भी है। पराविद्याओं में पारंगत होने के लिए गुरु का नवम भाव में गजकेसरी योग श्रेष्ठतम योग माना जायेगा। गुरु ग्रह के बल की जमीन चन्द्रमा के पास है। इसलिए चन्द्रमा की राषि में गुरु उच्चराषिस्थ होता है तथा चन्द्रमा से केन्द्र में होने की स्थिति में गजकेसरी योग सम्पन्न हो जाता है। परन्तु कर्क राषि या चन्द्रमा के पीड़ित होने की स्थिति में गुरु ग्रह का श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं किया जा सकता। अच्छा ज्योतिषी बनने के लिए गुरु ग्रह के श्रेष्ठ फल की आवष्यकता तो होती ही है साथ ही अन्तप्र्रज्ञा के कारक चन्द्रमा को भी शुभ होना ही चाहिए। इसलिए कुषल ज्योतिषी की कुण्डली में गुरु चन्द्र दोनों ही बली पाये जाते हैं। यही कारण है कि सफलतम ज्योतिषियों की कुण्डलियों में गुरु अधिकतर नवमस्थ होता है अथवा गुरु केन्द्रस्थ व चन्द्रमा नवमस्थ होता है या गुरु-बुध की युति या स्थान परिवर्तन व चन्द्रमा नवमस्थ होता है या बुध धनु या मीन राषिस्थ, गुरु केन्द्रस्थ व चन्द्रमा नवमस्थ होता है। कुछ अन्य योग के मतानुसार पंचम भाव का केतु जातक को विषेष बुद्धिमान व श्रेष्ठ ज्योतिषी बनाता है।

कुण्डली में 3, 6, 8 व 12 भावों को गुप्त भावों की संज्ञा दी गई है। अष्टम व द्वादष को पराविद्याओं, गुप्त विद्याओं व ज्योतिष आदि का विषेष कारक भाव माना जाता है। लग्न को कुण्डली का केन्द्र बिन्दु माना गया है। लग्न भाव का जिस भाव से विषेष सम्बन्ध स्थापित हो जाता है उसी भाव से सम्बन्धित विषय में जातक को विषेष रुचि होती है। इसके अतिरिक्त पंचमेष व भाग्येष भी रुचि निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लग्न से जातक की रुचि व स्वभाव, पंचम से बुद्धि तथा नवम् से प्रवृत्ति का विचार किया जाता है।

अष्टम भाव को भी गुप्त विद्याओं जैसे ज्योतिष, तन्त्र व गुप्त शक्ति का कारक भाव माना जाता है। इसलिए अष्टम भाव के बली होने, अष्टम भाव पर अधिकतर ग्रहों का प्रभाव होने या अष्टमेष के लग्नस्थ होने की स्थिति में भी जातक श्रेष्ठ ज्योतिषी बनता हुआ देखा गया है। लग्नेष का अष्टमस्थ होना भी उपरोक्त फल देता है। पंचमेष व भाग्येष का अष्टमस्थ होना भी ऐसा ही प्रभाव दर्षाता है। पंचमेष का द्वादषस्थ होना श्रेष्ठ ज्यातिर्विद बनाता है (क्योंकि बारहवां घर पंचम से अष्टम होता है)। यदि पंचमेष चतुस्र्थस्थ हो (क्योंकि पंचम भाव चैथे से द्वादषस्थ होता है)। यदि द्वादषेष पंचमस्थ हो या पंचम भाव को देखता हो या पंचमेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करता हो। यदि दषमेष पंचमस्थ हो (क्योंकि पंचम भाव दषम से अष्टम होता है)। चतुर्थेष पंचम भाव में स्थित हो या पंचम भाव को देखे अथवा पंचमेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे तो भी कुषल ज्योतिषी होता है। यदि लग्नाधिपति द्वादषस्थ हो या द्वादषेष लग्न में बैठे या लग्न को देखे अथवा लग्नेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे। दषमेष नवम् भाव में अर्थात अपने से द्वादषस्थ स्थित हो।

प्रथम भाव या चंद्रमा पर शनि की दृष्टि हो तो जातक सफल साधक होता है.चंद्रमा नवम भाव में किसी भी ग्रह की दृष्टि से रहित हो तो व्यक्ति श्रेष्ट सन्यासी होता है.दशम भाव का स्वामी सातवे घर में हो तो तांत्रिक साधना में सफलता मिलती हैनवमेश यदि बलवान होकर गुरु या शुक्र के साथ हो तो सफलता मिलती ही है.दशमेश दो शुभ ग्रहों के मध्य हो तब भी सफलता प्राप्त होती है .यदि सभी ग्रह चंद्रमा और ब्रहस्पति के मध्य हो तो तंत्र के बजाय मंत्र साधना ज्यादा अनुकूल रहती है .केन्द्र या त्रिकोण में सभी ग्रह हो तो प्रयत्न करने पर सफलता मिलती ही है.गुरु, मंगल और बुध का सम्बन्ध बनता हो तो सफलता मिलती है .शुक्र व बुध नवम भाव में हो तो ब्रह्म साक्षात्कार होता है.सूर्य उच्च का होकर लग्न के स्वामी के साथ हो तो व्यक्ति श्रेष्ट साधक होता है .लग्न के स्वामी पर गुरु की दृष्टि हो तो मन्त्र मर्मज्ञ होता है.दशम भाव का स्वामी दशम में ही हो तो साकार साधनों में सफलता मिलती है.दशमेश शनि के साथ हो तो तामसी साधनों में सफलता मिलती है.राहु अष्टम का हो तो व्यक्ति अद्भुत व गोपनीय तंत्र में प्रयत्नपूर्वक सफलता पा सकता है.पंचम भाव से सूर्य का सम्बन्ध बन रहा हो तो शक्ति साधना में सफलता मिलती है.नवम भाव में मंगल का सम्बन्ध तो शिवाराधक होकर सफलता पाता है.नवम में शनि स्वराशि स्थित हो तो वृद्धावस्था में व्यक्ति प्रसिद्द सन्यासी बनता है

ज्योतिर्विद योगः- बलवान बुध और गुरु केन्द्र में होते हैं और द्वितीय स्थान में शुक्र व तृतीय स्थान में शुभ ग्रह होता है तो ज्योतिर्विद योग होता है। ऐसा व्यक्ति विद्वान ज्योतिषी बनता है। त्रिकालज्ञ योग:- यदि चारों केन्द्रों व सभी त्रिकोणों के स्वामियों की त्रिकोण भाव में युति हो तो जातक विख्यात व विषेष बुद्धिमान तथा कुषल भविष्य वक्ता होता है। चतुर्थेष पंचम भाव में स्थित हो या पंचम भाव को देखे अथवा पंचमेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे तो भी कुषल ज्योतिषी होता है। यदि लग्नाधिपति द्वादषस्थ हो या द्वादषेष लग्न में बैठे या लग्न को देखे अथवा लग्नेष से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करे। दषमेष नवम् भाव में अर्थात अपने से द्वादषस्थ स्थित हो। ज्योतिर्विद योगः- बलवान बुध और गुरु केन्द्र में होते हैं और द्वितीय स्थान में शुक्र व तृतीय स्थान में शुभ ग्रह होता है तो ज्योतिर्विद योग होता है। ऐसा व्यक्ति विद्वान ज्योतिषी बनता है। त्रिकालज्ञ योग:- यदि चारों केन्द्रों व सभी त्रिकोणों के स्वामियों की त्रिकोण भाव में युति हो तो जातक विख्यात व विषेष बुद्धिमान तथा कुषल भविष्य वक्ता होता है।

निष्कर्षतः सफल भविष्यवक्ता बनने हेतु जन्मकुंडली में चंद्रमा, बुध, गुरु के अतिरिक्त द्वितीय व अष्टम भाव का शुभ होना तो आवश्यक है ही साथ ही जातक के गंभीर व चिंतनशील होने के लिए लग्न भाव पर शनि का प्रभाव होना भी वांछित है। भविष्यवक्ता को सात्विक आचरणशील, सत्य वक्ता व ईश्वर में आस्थावान होने के अतिरिक्त विनयशील होना चाहिए यदि ज्योतिषी सुबह से शाम हर समय झूठ बोले, पूजा पाठ व सात्विक आचरण से दूर रहे तथा मांस मदिरा का सेवन करे तो उसकी भविष्यवाणी में सत्यता नहीं हो सकती। किन्हें “शाबर ज्योतिष” साधना में सफल नहीं मिलती है इस पर भी विचार करना चाहिये |

1. नवम स्थान में शनि हो तो साधक शाबर मन्त्र में अरुचि रखता है या वह शाबर-साधना सतत नहीं करेगा। यदि वह ऐसा करेगा तो अन्त में उसको वैराग्य हो जाएगा।
2. नवम स्थान में बुध होने से जातक को शाबर-मन्त्र की सिद्धि में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
3. पँचम स्थान पर यदि मंगल की दृष्टि हो, तो जातक कुल-देवता, देवी का उपासक होता है।
4. पँचम स्थान पर यदि गुरु की दृष्टि हो, तो साधक को शाबर-साधना में विशेष सफलता मिलती है।
5. पँचम स्थान पर सूर्य की दृष्टि हो, तो साधक सूर्य या विष्णु की उपासना में सफल होता है।
6. यदि राहु की दृष्टि होती है, तो वह “भैरव” उपासक होता है। इस प्रकार के साधक को यदि पथ-प्रदर्शन नहीं मिलता, तो वह निम्न स्तर के देवी-देवताओं की उपासना करने लगता है।

किंतु इसके बाद भी व्यक्तिगत तौर पर अध्ययन करने पर मेरा यह मत बनता है कि वर्तमान परिपेक्ष में भूत भविष्य और वर्तमान को जानने के लिए “शाबर ज्योतिष” पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है | शेष अन्य और कोई भी ज्योतिष पद्धति इसके मुकाबले नहीं है | इस पर मैंने अपने निजी अनुभव और अध्ययन से जो सामग्री इकट्ठी की है वह समय-समय पर आपके समक्ष प्रस्तुत करता रहूंगा | मैं स्वयं “शाबर ज्योतिष” पद्धति के द्वारा कुंडलियों का विश्लेषण करता हूं और मेरे अनुभव में है कि अन्य ज्योतिष पद्धति के मुकाबले “शाबर ज्योतिष” पद्धति द्वारा किया गया फलादेश ज्यादा सटीक और सत्य होता है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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