विवेक चूड़ामणि ग्रन्थ का आध्यात्मिक रहस्य : Yogesh Mishra

विवेकचूडामणि आदि शंकराचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ है ! जिसमें अद्वैत वेदान्त का निर्वचन किया गया है ! इसमें ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व, ज्ञानोपलब्धि का उपाय, प्रश्न-निरूपण, आत्मज्ञान का महत्त्व, पंचप्राण, आत्म-निरूपण, मुक्ति कैसे होगी !

आत्मज्ञान का फल आदि तत्त्वज्ञान के विभिन्न विषयों का अत्यन्त सुन्दर निरूपण किया गया है ! माना जाता हैं कि इस ग्रन्थ में सभी वेदो का सार समाहित है ! ब्रह्म (ईश्वर) के अस्तित्व और स्वरुप पर सर्वथा प्रश्न होते आये हैं ! ब्रह्मसूत्र (उत्तर मीमांसा) के प्रथम सूत्र में भगवान वेदव्यास ने कहा “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” अर्थात, ब्रह्म जानने की जिज्ञासा ! मीमांसा का अर्थ है ‘जिज्ञासा’ !

ब्रह्म के स्वरुप के बारे में द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि ऐसी कई विचारधाराएँ हैं ! ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ या अद्वैत वेदांत इन्हीं में से एक है ! जब पैर में कांटा चुभता है तब आँख से पानी आता है और हाथ कांटे को निकालने के लिए जाता है, यह अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है ! हम अद्वैत वेदांत की प्रक्रिया से इस को समझने की कोशिश करेंगे !

जीवों को प्रथम तो नर जन्म ही दुर्लभ है, उससे भी अधिक दुर्लभ पुरुषत्व और उससे भी अधिक ब्राह्मणत्व का मिलना कठिन है ! ब्राह्मण होने के बाद भी वैदिक धर्म का अनुगामी होना और उसमें भी विद्वत्ता का होना कठिन माना गया है ! इतना ही नहीं यह सब कुछ होने पर भी आत्मा और अनात्मा का विवेक, सम्यक अनुभव, ब्रह्मात्म भाव से स्थिति और मुक्ति – ये तो करोणों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाक के बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते !

दुर्लभ मनुष्य – देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ़ कौन होगा? ऐसा आदि शंकराचार्य ने कहा है ! उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का यजन करे, नाना शुभकर्म करे या भगवान को भजे उसके बाद भी जबतक उसे ब्रह्म और आत्मा में एकता का बोध नहीं होता तब चाहें सौ कल्प (बह्मा का वर्ष) भी बीत जाये मुक्ति (मोक्ष) नहीं मिल सकती !’

मोक्ष न योग से सिद्ध होता है, न सांख्य से, न कर्म से और न विद्या से ! वह केवल ब्रह्मात्मैक्य – बोध (ब्रह्म और आत्मा की एकता का ज्ञान) से ही होता है और किसी प्रकार से नहीं ! जिस प्रकार वीणा का रूप – लावण्य तथा उसको बजाने का सुंदर ढंग मनुष्यों के मनोरंजन का ही कारण होता है, उससे कोई साम्राज्य प्राप्ति नहीं हो जाती, उसी प्रकार विद्वानों की वाणी कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्यान की कुशलता और विद्वता भोग का ही कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं !

शंकराचार्य जी ने कहा है कि जिस प्रकार औषधि को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण मात्र से रोग ठीक नहीं होता उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ब्रह्म – ब्रह्म कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता !

आज आधुनिक युग की परिपाटी में धर्म का अर्थ मंदिर में घंटा बजाना, फूल और माला चढ़ाना माना जाता है, धार्मिक विद्वान राम – नाम जप को मुक्ति का उपाय बताते हैं जबकि वास्तव में राम और कृष्ण का अवतरण उनके चरित्र को स्वयं के जीवन में उतारने के लिए था !

मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यंत वैराग्य होना कहा गया है, तदन्तर शम, दम, तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है ! तदुपरांत मुनि को श्रवण, मनन और चिरकाल तक नित्य-निरंतर आत्म-तत्व का ध्यान करना चाहिए तब वह विद्वान परम् निर्विकल्पावास्था को प्राप्त होकर निर्वाण – सुख (मोक्ष) को पाता है ! – विवेक चूड़ामणि 72

आचार्य शंकर ने कहा है – ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है; “ब्रह्मा से लेकर स्तम्ब (तृण) पर्यंत समस्त उपाधियाँ मिथ्या हैं, आप ही ब्रह्मा है, आप ही विष्णु हैं, आप ही इंद्र हैं और आप ही यह सारा विश्व हैं ! आप से भिन्न और कुछ भी नहीं है !” – विवेक चूड़ामणि 387, 389

अन्य सभी दिखने वाली वस्तुएं वस्तुतः माया है ! अब प्रश्न यह है कि माया क्या है? आचार्य शंकर के शब्दों में “जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की परा शक्ति है, वही माया है, जिससे यह सारा जगत उत्पन्न हुआ है !” माया वास्तव में न सत है और न असत है, न उभयरूप है न भिन्न है न अभिन्न है किन्तु अत्यंत अद्भुत और अनिर्वचनीयरूपा (जो कही न जा सके) है ! रज्जू के ज्ञान से सर्प – भ्रम के समान वह अद्वितीय शुद्ध ब्रह्म के ज्ञान से ही नष्ट होने वाली है ! अपने – अपने प्रसिद्ध कार्यों के कारण सत्व, रज और तम – ये उसके तीन गुण प्रसिद्ध हैं !

मनुष्य का शरीर पंचभूतों (पृथ्वी, जल, तेज़, वायु और आकाश) से निर्मित है और इन्ही के स्वरुप (भोजन, जल, वायु आदि) माध्यम को मनुष्य ग्रहण करता है और इन्ही की तन्मात्राएँ भोक्ता जीव के भोग रूप सुख के लिए शब्दादि (पृथ्वी की तन्मात्रा गंध, जल की स्वाद, तेज़ अथवा अग्नि की तन्मात्रा दृश्य, वायु की स्पर्श तथा आकाश की तन्मात्रा शब्द है !) पांच विषय हो जाती हैं ! तदन्तर सांसारिक अथवा मूढ़ मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पांच विषयों में किसी विषय अथवा विषयों से बधा और जकड़ा रहता है !

अगर दोष के अनुसार विचार करें तो देहासक्ति, विषय – वासना, अहंकार और माया, यह सभी त्याग करने योग्य हैं ! देहासक्ति के विषय में आचार्य शंकर कहते हैं ‘जो अनादि अविद्याकृत बंधन को छुड़ाना, इस कर्तव्य को त्याग कर प्रतिक्षण इस देह के पोषण में ही लगा रहता है, वह स्वयं अपना ही घात करता है !’ विषय वासना के सन्दर्भ में आचार्य का मत है कि ‘विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, परन्तु विषय तो आँखों से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते !’ यहाँ आचार्य शंकर ने एक और महत्वपूर्ण बात कही है “जो विषयों की आशारूप कठिन बंधन से छूटा हुआ है वही मोक्ष का भागी होता है और कोई नहीं भले ही वह कितना ही बड़ा विद्वान या छहों दर्शनों का ज्ञाता ही क्यों न हो !” – विवेक चूड़ामणि 79, 80

अद्वैत वेदांत की प्रक्रिया के अनुसार जीव अविद्या की तीन शक्तियों से आवृत (बधा और जकड़ा हुआ) है:

आवरण – स्वरूपविस्मृति या अज्ञान !

मल – अंतःकरण के मलिन संस्कार जनित दोष ! और

विक्षेप – चित्तचांचल्यता !

रस्सी में भ्रम के कारण सर्प की प्रतीति होती है (इसे अध्यास कहते हैं; स्मृतिरूप पूर्वदृष्टि का दूसरे में जो अवभास है, वही अध्यास है !) और उस मिथ्या प्रतीति से ही भय, कम्पन आदि दुखों की प्राप्ति होती है किन्तु उजाले आदि में जैसे ही रस्सी का यथार्थ ज्ञान होता है, रस्सी का अज्ञान (आवरण), अज्ञानता के कारण उत्पन्न सर्प (मल) और सर्प प्रतीति से उत्पन्न हुआ भय, कम्पन आदि दुःख (विक्षेप) – यह तीनो ही एक साथ समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार आत्मस्वरूप के ज्ञान होने पर आत्मा का अज्ञान (आवरण), अज्ञानजन्य प्रपंच की प्रतीति (मल) और उससे होने वाले दुःख (विक्षेप) की निवृति एक साथ हो जाती है ! निष्काम कर्म द्वारा मल, उपासना द्वारा विक्षेप और ज्ञान द्वारा आवरण का नाश होता है !

ज्ञान से ही आत्मसाक्षात्कार होता है और फिर उसकी दृष्टि में संसार और संसार बंधन का अत्यन्ताभाव होकर सर्वत्र अशेष-विशेष-शून्य एक अखण्ड चिदानन्दघन सत्ता ही रह जाती है ! आत्मसाक्षात्कार होने के बाद जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति का भी प्रश्न नहीं रहता, वह तो नित्य मुक्त ही हैं ! इसप्रकार यद्यपि मोक्ष का साक्षात साधन ज्ञान ही है तथापि ज्ञानप्राप्ति का अधिकार आदान-प्रदान करने वाले होने के कारण कर्म और उपासना भी उसके साधन अवश्य हैं !

ब्रह्म के स्वरुप पर भी आचार्य शंकर का कहना है कि श्रुति अर्थात वेदों के समान गुरु भी केवल तटस्थरूप से ही ब्रह्म का बोध कराते हैं, यह विद्वान शिष्य के ऊपर है कि वह अपनी ईश्वरानुगृहीत बुद्धि से अनुभव कर इस संसार – सागर से पार हो जाये !

यहाँ विशेष है: ब्रह्म का साक्षात् निरूपण कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि वह शब्द की शक्तिवृत्ति से बाहर है, शब्द वहां तक पहुँच ही नहीं सकता ! उसका ज्ञान तो लक्षणावृत्ति से ही हो सकता है ! अज्ञान की आवरण शक्ति रहने और न रहने को ही क्रमशः बंध और मोक्ष कहा जाता है और ब्रह्म का कोई आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि उससे अतिरिक्त कोई और वस्तु है नहीं, अतः वह अनावृत्त है !

यदि ब्रह्म का भी आवरण माना जाये तो अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता और द्वैत श्रुति को मान्य नहीं है ! वास्तव में बन्ध और मोक्ष दोनों बुद्धि के गुण हैं ! जैसे बादलों के द्वारा दृष्टि के ढंक जाने पर सूर्य को ढंका हुआ कहा जाता है, उसी प्रकार मूढ़ मनुष्य उनकी कल्पना आत्म तत्व में व्यर्थ ही करते हैं क्योंकि ब्रह्म तो सदैव अद्वितीय, असंग, चैतन्यस्वरूप, एक और अविनाशी है !

जिसे मोक्ष को समझने और पाने के लिये किसी तत्व ज्ञानी गुरु से “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” की साधना कीजिये !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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