योरोपियन तांत्रिकों में जोकव बोहम की ख्याति कुण्डलिनी साधकों के रूप में रही है ! उनके जर्मन शिष्य जान जार्ज गिचेल की लिखी पुस्तक ‘थियोसॉफिक प्रोक्टिका’ में चक्र संस्थानों का विशद वर्णन है जिसे उन्होंने अनुसंधानों और अभ्यासों के आधार पर लिखा है ! जैफरी हडस्वन ने इस संदर्भ में गहरी खोजें की हैं और आत्म विज्ञान एंव भौतिक विज्ञान के समन्वयात्मक आधार लेकर चक्रों में सन्निहित शक्ति और उसके उभार उपयोग के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है !
इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीवन कोशों को-महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया संम्भाले हुए हैं ! उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं ! एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) कहते हैं ! इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है ! शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है ! इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमणिका शक्ति का नाम कुण्डलिनी है !
सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान ‘शक्ति’ भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान ‘शिव’ देश कहा है ! इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है !
मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं ! योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं ! जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है ! प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं ! ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलाक में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है ! यह द्युलोक-देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है ! कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी, कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है ! उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते हैं !
आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती है ! पतन के स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक, सूर्यलोक तक पहुँचना होता है ! योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है ! कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है !
आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं ! उसका एक सिरा मस्तिष्क का-दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है ! कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं ! इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं ! इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए है ! इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है !
इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोद का गड्डा करते हैं, इसके बाद ही दीवार चुनने के काम में लग जाते हैं ! इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और सृजन का दुहरा काम करते हैं ! जो आवश्यक है उसे विकसित करने में वह कुशल माली की भूमिका निभाते हैं ! यों आरंभ में जमीन जोतने जैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिए होता है !
माली भूमि खोदने, खर-पतवार उखाड़ने, पौधे की काट-छाँट करने का काम करते समय ध्वंस में संलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने, रखवाली करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी उपयोग होता है ! इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है !
मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं ! इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है ! इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं ! इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है ! ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है ! हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है ! आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है ! लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता ! बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं ! रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती-कोयला, पानी लेती चलती है ! इन विराम स्थलों को ‘चक्र ‘ कहा गया है !
चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है ! अभिमन्यु उसमें फँस गया था ! वहधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था ! चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं ! इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं ! भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है ! इसलिये उसके वहधन का विधान बताया गया है !
रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपने क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था ! उन्होंने सात ताड़ वृक्षों का एक बाण से वहधकर दिखाया था ! इसे चक्रवहधन की उपमा दी जा सकती है ! भागवत माहात्य में धुन्धकारी प्रेत के बाँस की सात गाँठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है ! इसे चक्रवहधन का संकेत समझा जा सकता है !
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिये कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं ! उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिये बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है ! कुसंस्कारी संताने उत्तराधिकारी में मिली बहुमूल्य सम्पदा से दुर्व्यसन अपनानी और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती हैं ! छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेबर पहना देने से उनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है !
धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है ! मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं ! यह अवरोध इसलिये है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके ! मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है !
चक्रवहधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवहचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है ! जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है ! सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवहधन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए शारदा तिलक ग्रंथ के टीकाकार ने ‘आत्म विवहक’ नामक किसी साधना ग्रंथ का उदाहरण प्रस्तुत किया है !
श्री हडसन ने अपनी पुस्तक ‘साइन्स आव सीयर-शिप’ में अपना मत व्यक्त किया है ! प्रत्यक्ष शरीर में चक्रों की उपस्थिति का परिचय तंतु गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता है ! अन्तः दर्शियों का अनुभव इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थिति दिव्य शक्तियों का केन्द्र संस्थान बताया है !
कुण्डलिनी के बारे में उनके पर्यवहक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक व्यापक चेतना शक्ति है ! मनुष्य के मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है ! कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है ! उसके फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है ! यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है !
चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है ! स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार हुआ अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है ! श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है ! मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है ! संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं ! मनोविकार स्वयंमेव घटते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है !
अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं ! हृदय स्थान पर गुलाब से फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचीन’ कनक कमल मानते हैं ! भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है ! कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवहदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है ! बुद्धि की वह परत जिसे विवहकशीलता कहते हैं ! आत्मीयता का विस्तार सहानुभूति एवं उदार सेवा सहाकारिता क तत्त्व इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं !
कण्ठ में विशुद्ध चक्र है ! इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं ! दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है ! शरीरशास्त्र में थाइराइड ग्रंथि और उससे स्रवित होने वाले हार्मोन के संतुलन-असंतुलन से उत्पन्न लाभ-हानि की चर्चा की जाती है ! अध्यात्मशास्त्र द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर में है ! उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं ! लघु मस्तिष्क सिर के पिछले भाग में है ! अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी स्थान पर मानी जाती हैं !
मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र इस चित्त संस्थान को प्रभावित करता है ! तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने सूत्र हाथ में आ जाते हैं ! नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं !
सहस्रार की मस्तिष्क के मध्य भाग में है ! शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवहटिंग सिस्टम का अस्तित्व है ! वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है ! वह धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं ! इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं !
उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वह हैं हजारों की संख्या में ! इसलिये हजार या हजारों का उद्बोधक ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है ! सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है !
यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है इसलिये उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं ! रेडियो एरियल की तहर हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखाते और उसे सिर रूपी दुर्ग पर आत्मा सिद्धान्तों को स्वीकृत किये जाने की विजय पताका बताते हैं ! आज्ञाचक्र को सहस्रार का उत्पादन केन्द्र कह सकते हैं !
सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित हैं तो भी वह समूचे नाड़ी मण्डल को प्रभावित करते हैं ! स्वचालित और एच्छिक दोनों की संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है ! अस्तु शरीर संस्थान के अवयवों के चक्रों द्वारा र्निदेश पहुँचाये जा सकते हैं ! साधारणतया यह कार्य अचेतन मन करता है और उस पर अचेतन मस्तिष्क का कोई बस नहीं चलता है ! रोकने की इच्छा करने पर भी रक्त संचार रुकता नहीं और तेज करने की इच्छा होने पर भी उसमें सफलता नहीं मिलती ! अचेतन बड़ा दुराग्रही है अचेतन की बात सुनने की उसे फुर्सत नहीं ! उसकी मन मर्जी ही चलती है ऐसी दशा में मनुष्य हाथ-पैर चलाने जैसे छोटे-मोटे काम ही इच्छानुसार कर पाता है !
शरीर की अनैतिच्छक क्रिया पद्धति के सम्बन्ध में वह लाचार बना रहता है ! इसी प्रकार अपनी आदत, प्रकृति रुचि, दिशा को बदलने के मन्सूबे भी एक कोने पर रखे रह जाते हैं ! ढर्रा अपने क्रम से चलता रहता है ! ऐसी दशा में व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली और शरीर तथा मनः संस्थान में अभीष्ट परिवर्तन करने वाली आकांक्षा प्रायः अपूर्ण एवं निष्फल रहती है !
चक्र संस्थान को यदि जाग्रत तथा नियंतरित किया जा सके तो आत्म जगत् पर अपना अधिकार हो जाता है ! यह आत्म विजय अपने ढंग की अद्भूत सफलता है ! इसका महत्व तत्त्वदर्शियों ने विश्व विजय से भी अधिक महत्वपूर्ण बतलाया है !
यह षडचक्र विश्व विजय का प्रतिक है ! इसकी सम्पदा का उपभोग, उपयोग कर सकने का सामर्थ्य इजरायल में आज स्पष्ट दिखाई देता है ! यह आत्म विजय द्वारा विश्व विजय की यात्रा का प्रतीक है ! इस षडचक्र में ईश्वरीय शक्तियां निहित हैं ! उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है ! इसी आधार पर बहिरंग और क्षेत्रों की ईश्वरीय सम्पदा का प्रचुर लाभ अपने आप मिलने लगता है !
अपने ध्वज पर इस रहस्यमय अति शक्तिशाली षडचक्र की स्थापना के कारण ही आज भौगोलिक दृष्टि से बहुत ही छोटा सा राष्ट्र इजरायल आज विश्व की महा शक्तियों को भी संचालित कर रहा है ! यही इजरायली झंडे पर इस षडचक्र की स्थापना का अलौकिक रहस्य है !!