क्या बौद्ध धर्म का आधार स्त्रियोचित था ! : Yogesh Mishra

प्रकृति के द्वारा ही पुरुष चित्त और स्त्री चित्त के चेतना के केन्द्र भी भिन्न-भिन्न होते है ! पुरुष मूलत: मष्तिष्क केन्द्रित है ! उसका सारा जोर बौद्घिक है ! वह हर चीज को तर्क वितर्क के आधार पर ही तोलता है ! उसके तर्क करने में भाव की गुंजाइश नहीं रह पाती है ! तर्कवान व्यक्ति ही संकल्प आसानी से कर पाता है ! इसलिये तर्कवान व्यक्ति कठोर भी होता है ! यही व्यक्ति का पुरुष-चित है !

पुरुषों में बहुत कम लोग ही स्त्रियोचित होते हैं और स्त्रियों में बहुत कम लोग ही स्त्रियाँ पुरुषोंचित मिलेंगी ! दूसरी तरफ स्त्री में स्त्रियोचित की चेतना का तल भावना प्रधान होता है ! प्रेम की मात्रा और भाव की मात्रा स्त्री में प्रगाढ़ होती है ! समर्पण उसमें सहज होता है ! होश को खोने में वह स्वयं के प्रति भी बेसुध हो जाती हैं ! यही स्त्री के आयाम बौद्ध धर्म के विकास में सहायक थे ! क्योंकि बुद्ध स्वयं भावना प्रधान स्त्रियोचित गुणों से समपन्न थे !

इस स्थिति में यदि बुद्ध समाज को मात्र स्त्रियोचित भाव प्रधान साधना की दीक्षा दे पाते थे ! जिसमें समाज स्त्रियाँ की तरह ही राग और वासना का ही ताना-बाना ही बुन पाता था ! पुरुषों का बौद्ध के इस स्त्रियोचित राग की में वासना में गिरना सहज ही था ! अत: बुद्ध को अपने दर्शन के प्रचार के लिये ऐसी व्यवस्था करनी पड़ी कि जिसमें पुरुष भी स्त्रियोचित भाव के साथ तो रहे पर वासना में न गिरे पर स्त्री का राग और प्रेम भी पोषित होता रहे !

क्योंकि बुद्ध जानते थे कि बिना राग और सौन्दर्य प्रदर्शन के स्त्री रह ही नहीं सकती है ! अत: बौद्ध विहारों में स्त्रियों के संकल्प मार्ग में ठील थी ! अर्थात उनके लिये नियम पुरुषों के मुकाबले ज्यादा कठोर नहीं थे ! शायद कालांतर में यही बौद्ध विहारों के विकृति होने कारण था !

पुरुष व स्त्री के वासना के तल भी भिन्नता है ! पुरुष की वासना का रूप जहां शारीरिक रूप से बहिर्मुखी और क्रियाशील है ! वहीं स्त्री की वासना का रूप शारिरिक रूप से गैर क्रियाशील है पर तीव्र अंतर्मुखी जरुर है ! इसलिये बुद्ध ने अपने स्त्रियोचित गुणों के कारण साधना में स्त्री पर भरोसा करना ज्यादा उचित समझा ! बजाय पुरुष के ! यह वैसे बड़ी चकित करने वाली बात है !

बुद्ध की निगाह में स्त्री का पुरुष के प्रति ज्ञान, शारीरिक, मानसिक, भावनागत व चेतनागत अद्भुत है ! इस प्राकृतिक व्यवस्था के हिसाब से यहां बुद्ध ने बौद्ध विहारों में स्त्री पर भरोसा कर के पुरष से ज्यादा स्त्री को सम्मान दिया था ! बुद्ध ने पुरुष की वासनागत कमजोरी को समझा था और उसका अपने धर्म प्रसार के लिये बौद्ध विहारों में खुल कर प्रयोग किया !

बुद्ध यह जानते थे कि पुरुष का चित्त होने के कारण पुरुष अहंकारी होता है ! जिसे वह स्वभिमान कहते थे ! अपने बौद्ध विहारों में इस स्वभिमान को पोषित करने के लिये वह जीतोड़ कोशिश करते रहे हैं ! जब एक स्त्री पुरुष के चरणों में छुकर उसे देवता का सा दर्जा दे देती है ! तब पुरुष में अपना पुरुष होने का स्वभिमान जाग्रत होता है ! और उसका आकर्षण बार-बार उस स्त्री की तरफ बढ़ता है ! जो उसे सम्मान दे रही होती है !

यह पर्याप्त था ! पुरुषों को बौद्ध विहार में रोके रखने के लिये ! जिससे बौद्ध विहारों में निरंतर पुरुषों की संख्या बढ़ती चली गई ! अब पुरुष की नजर में बौद्ध विहार में साधारण सौन्दर्य की स्त्रीयां भी पुरुषों के आकर्षण का केन्द्र थी ! जिससे स्त्री पुरुष दोनों को ही साथ रहने में बल मिलता था !

किसी विशेष स्त्री को आकर्षित करने के लिये बौद्ध विहार का विशेष पुरुष विशेष उपलब्धियां हासिल करता था ! जिससे बौद्ध विहार के साथ-साथ बौद्ध दर्शन भी पूरे आर्यावर्त में तेजी के साथ फल फूल रहा था ! शायद इसलिये बुद्ध ने अपने धर्म प्रसार के लिये स्त्री पर ज्यादा भरोसा किया है और बौद्ध विहार के नियम ज्यादातर स्त्रियोचित बनाये थे

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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