क्रांति के विषय में कोई भी बात करने के पहले दो बिंदुओं को समझ लेना परम आवश्यक है ! पहला क्रांति कभी भी भौतिक रूप में नहीं होती है ! भौतिक रूप से तो बस क्रांति के नाम पर उत्पात होता है !
क्रांति एक मानसिक प्रक्रिया है ! जब कोई समाज नियमित रूप से किसी एक दिशा में विकास के लिए सोचना शुरू कर देता है, तो उस राष्ट्र में क्रांति हो जाती है ! इसके लिए जरूरी नहीं कि व्यक्ति अस्त्र-शस्त्र लेकर खून की नदियां बहाता फिरे !
दूसरा क्रांति विकास की क्रम का ही अंश है ! जब किसी भी व्यवस्था का सामान्य विकास बहुत तेज गति से होने लगता है ! तो उसे ही क्रांति का नाम दे दिया जाता है !
जैसे जापान में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हारी हुई स्थिति में जब जापान के आम नागरिकों ने अपने राष्ट्र के विकास के लिए चिंतन करना शुरू किया तो उन्होंने भविष्य की तकनीकी के क्षेत्र में जो तीव्र गति से कार्य करना आरंभ किया ! उसे ही क्रांति का नाम दिया गया ! इसके लिए उन लोगों ने न तो कोई हाथ में हथियार उठाया और न ही कहीं लाशों के ढेर लगा दिये !
बल्कि इसके विपरीत जो तकनीक पूरी दुनिया ने सामान्य गति से विकसित की उसे जापान के लोगों ने दुनिया के सामान्य गति से और अधिक तीव्र गति से विकसित करना शुरू कर दिया ! इसीलिए कहा जाता है कि जापान ने बहुत ही कम समय में तकनीकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रगति की ! क्रांति के यही मानक विश्व के और दूसरे देशों के संदर्भ में भी कहे जा सकते हैं !
अब रही भारत की बात तो भारत का आम आवाम न तो शारीरिक रूप से और न ही बौद्धिक रूप से अभी तक किसी भी क्रांति का पक्षधर है ! यहां के लोग क्रांति भी मनोरंजन के लिए करना चाहते हैं ! इनका न तो कोई दृढ़ संकल्प है और न ही कहीं कोई समर्पण है ! सम्यक चिन्तनशील विचारकों के मार्गदर्शन के आभाव में कोई उत्साही युवक गाय पालकर क्रांति कर देना चाहता है, तो कोई व्यक्ति जैविक खेती करके क्रांति कर देना चाहता है !
अब प्रश्न यह है कि चाहे गौ पालन हो या समर्पित भाव से जैविक खेती किसानी करने वाला व्यक्ति इन दोनों के ही समाजिक, आर्थिक सुरक्षा और जीवन यापन की सामाजिक संभावना क्या है ! क्या समाज इन राष्ट्र के लिये समर्पित इन क्रांतिकारी युवाओं के कार्यों को प्रोत्साहित कर रहा है या उन्हें कोई मार्गदर्शन दे रहा है ! जो कार्य पूर्व में आचार्य या गुरु का हुआ करता था ! यदि नहीं तो अपने निजी सीमित संसाधनों से यह लोग क्रांति के मार्ग पर कितनी दूर तक चल पायेंगे !
क्योंकि उनके अपने निजी सीमित संसाधनों के मुक़ाबले राष्ट्र बहुत बड़ा है और राष्ट्र के अंदर रहने वाले नागरिक अपने निजी स्वार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी सुनने मानने को तैयार नहीं है ! यहां के नागरिकों का दृष्टिकोण भी यथास्थितिवादी है ! साथ ही न तो वह आर्थिक रूप से इतना संपन्न है कि राष्ट्र के लिए समर्पित किसी नौजवान को सहयोग कर सकें और न ही उनकी यह मानसिकता है कि यह नौजवान ही हमारे राष्ट्र का भविष्य हैं ! इसलिये अपनी सुविधाओं में से कुछ अंश उन्हें इन राष्ट्र के लिये समर्पित नौजवानों को दे देना चाहिये !
यह दोनों ही प्रबल सामाजिक मानसिक रोग आज हमारे विकास में बाधक हैं ! इसीलिए विश्व के सभी देश में जहां पर आज विकास हुआ दिखाई देता है वहां के नागरिकों की जीवन शैली में वयस्क बच्चा अपने माता पिता के साथ उनके संरक्षण में नहीं रहता है ! बल्कि वह स्वयं अपने विकास का मार्ग अपने निजी पुरुषार्थ से निर्धारित करता है और शासन सरकार उसके उस पुरुषार्थ के फलीभूत होने में उसका सहयोग करती है !
जब तक यह दृष्टिकोण हमारे राष्ट्र के कर्णधारों और भारत के आम जनमानस द्वारा स्वीकार्य नहीं होगा ! तब तक भारत में कभी भी कोई भी क्रांति नहीं हो सकती !
हमें सुविधाओं से ऊपर उठकर विश्व की प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखते हुए अपने चिंतन करने के तरीके को बदलना होगा ! अपने असुरक्षा के भय को त्याग कर नित नये-नये जोखिम उठाने होंगे ! भविष्य की तकनीक को समझने का सामर्थ्य पैदा करना होगा और षड्यंत्रकरिर्यों को ललकार कर भगाना होगा ! तब हमारे देश में क्रांति हो सकती है ! किन्तु शायद इसके लिये अभी हमारा समाज तैयार नहीं है !!