महाभारत के सिद्धांतों पर आधारित मनुस्मृति की वह उक्ति जो कि आठवें अध्याय के पन्द्रहवें श्लोक में वर्णित है !
‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः !
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् !’
इस वाक्यांश का अर्थ है कि जो लोग ’धर्म’ की रक्षा करते हैं, उनकी रक्षा स्वयं धर्म से हो जाती है ! इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि ‘रक्षित किया गया धर्म ही आपकी रक्षा करता है’ !
लेकिन अब इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्म शास्त्रों में वर्णित “धर्म” आखिर है क्या !
क्या राम और कृष्ण की कहानियां सुने लेना ही धर्म है या फिर नियमित रूप से किसी मंदिर पर जाकर भगवान को प्रसाद चढ़ा कर उसके दर्शन कर लेना ही धर्म है ! या फिर त्योहार के नाम पर तरह-तरह के व्यंजन बनाकर खा लेना धर्म है या भूखे रहकर व्रत का समय बिता देना ही धर्म है !
अगर यही सब धर्म है तो भारत में लाखों नये मंदिर खुल गये हैं, जिसमें नियमित भीड़ लगने लगी है ! राम और कृष्ण की कहानियां सुनाने वाले लाखों कथावाचक आये दिन अपने-अपने पंडाल लगाकर कथा सुना रहे हैं और दान के नाम पर मोटी रकम बटोर रहे हैं ! नियमित रूप से प्रतिवर्ष निर्धारित तिथियों पर त्योहार एक दम अपने समय से मनाये जा रहे हैं और विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये महिला, पुरुष, बच्चे सभी तरह-तरह के व्रत रख रहे हैं !
लेकिन इस सब के बदले एक कठोर सत्य यह भी है कि न हम धर्म की रक्षा कर पा रहे हैं और न ही धर्म हमारी रक्षा कर पा रहा है !
इस विषय पर किसी भी तर्क वितर्क को करने से पहले “धर्म के मर्म” को समझना आवश्यक है ! मेरी दृष्टि में किसी भी समाज को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिये जिन नियमों के समूह को कोई भी समाज धारण कर लेता है, वही धर्म है !
इसमें रक्त की शुद्धता के लिये समाज में वर्ण व्यवस्था की दृढ़ता, आहार-विहार-विचार और उससे उत्पन्न संस्कार की शुद्धता ! समाज के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन की ईमानदारी पूर्वक इच्छा और राष्ट्र व समाज के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर देने का साहस साथ ही त्याग और सत्य बोलने का सामर्थ्य भी चाहिये !
तभी किसी भी समाज की बेसिक संरचना का निर्माण होता है और अभी तक सनातन धर्म में जितने भी सिद्धांतों की स्थापना की गई है ! उन सभी के पीछे इसी तरह के बेसिक सामाजिक संरचना को जीवित बनाये रखने का दृढ़ संकल्प रहा है ! इसी से सदियों से हमारा सनातन समाज जीवित और गतिशील रहा है ! क्योंकि यही धर्म है !
रामायण, महाभारत और पुराणों की कहानियाँ मात्र इसलिये लिखी गई हैं कि हम यह जान सकें कि हमारे पूर्वज कितने भी बड़े साम्राज्य के मालिक हो लेकिन यदि उन्होंने अपने साम्राज्य को या अपने समाज को व्यवस्थित तरीके से धर्म के अनुसार नियंत्रित नहीं किया है तो उनका सर्वनाश ही हो गया है ! चाहे वह स्वयं साक्षात विष्णु का अवतार ही क्यों न हों !
वैष्णव जीवन शैली के संस्थापक जब व्यक्ति को अपने सहज और स्वाभाविक जीवन शैली जिसे हम शैव जीवन शैली कहते हैं, से हटकर उन्हें नगरी व्यावसायिक जीवन शैली को अपनाने के लिये बाध्य लगे तो वहीँ से व्यक्ति के अंदर संग्रह करने की प्रवृत्ति पैदा होने लगी, जिससे लालच और अहंकार की उत्पत्ति हुई ! जिसने अनेकों तरह के अपराध को जन्म देना शुरू किया !
इसी लालच और अहंकार को नियंत्रित करने के लिये राजा के पद का निर्माण हुआ और राजा के अहंकार और लालच को नियंत्रित करने के लिये सर्व त्यागी चिन्तक मनीषी “धर्मगुरु” पद का निर्माण हुआ और उस धर्मगुरु को धर्म की व्यवस्था के तहत यह निर्देशित किया गया कि वह किसी भी तरह का कोई भी संग्रह नहीं करेगा ! जिससे धर्मगुरु के अंदर लालच और अहंकार की उत्पत्ति न हो सके ! यही विकसित वैष्णव जीवन शैली की धार्मिक व्यवस्था थी ! जिसके तहत वैष्णव धर्म सदियों तक गतिशील रहा !
लेकिन अति भोग और अहंकार की कामना ने वैष्णव जीवन शैली को पूरी तरह से विकृत कर दिया ! जिसका परिणाम यह हुआ कि धर्म का निरंतर विनाश होता चला गया और धर्म के अभाव में समाज की सामाजिक संरचना भी विकृत होती चली गई और इस विनाश के प्रभाव से न तो धर्मगुरु बचा, न राजा बचा और न ही समाज या राष्ट्र बचा ! सभी का सर्वनाश हो गया !
अतः इन तथ्यों से एकदम स्पष्ट है कि यदि सामाजिक संरचना में धर्म के बेसिक सिद्धांतों को नजर अंदाज करके कृत्रिम और काल्पनिक धर्म की उत्पत्ति की जायेगी या धर्म के विकृत स्वरूप को ही धर्म बतलाया जायेगा, तो ऐसे विकृत धर्म के सिद्धांतों का अनुकरण करने से न व्यक्ति बचेगा, न समाज बचेगा और न राष्ट्र ही बचेगा और यही आज हो रहा है !
हमें अपने धर्म ग्रंथों से सबक लेना चाहिये कि जब पूर्व में हमारे एक से एक ज्ञानी, मेधावी और साहसी पूर्वज मूल धर्म के सिद्धांतों को छोड़कर कृत्रिम धर्म का अनुकरण करके सर्वनाश की गति को प्राप्त हुये हैं, तो हम कैसे कृत्रिम धर्म का अनुसरण करके अपने आप को या अपने समाज व राष्ट्र को बचा सकेंगे !
इसलिए स्वयं को, समाज को और राष्ट्र को बचाने के लिये धर्म के मूल मर्म को समझना अति आवश्यक है ! यह कार्य भगवा वस्त्र धारी साधु, संत, मुनि, मठाधीशों का है, लेकिन आज यह सभी अपने कर्तव्य से विमुख हो गये हैं !
इसी वजह से जगह-जगह अल्प ज्ञानी कथावाचक ढोलक और मंजीरा बजा कर धर्म के विकृत स्वरूप को समाज के सामने परोस रहे हैं और मोटा दान इकट्ठा कर रहे हैं ! जिससे हमारा समाज ही नहीं, हम भी अपने राष्ट्र के साथ नष्ट हो रहे हैं !!