वासना से भरा पुरुष हमेशा स्त्री को वासना का एक साधन ही समझता है । वह उसे पुज्या नहीं भोग्या ही समझता है । वह हर पल वासना की दृष्टि से उसे देखता है । वह उसे प्रेम की नजर से नहीं देख पाता है । जबकि स्त्री सदैव प्रेम से भरी रहती है । वह सदैव पूर्ण रहती है । इसीलिये वह एक पूर्ण संतान को जन्म दे पाती है !
स्त्री की निरंतर एक ही खोज चलती रहती है । वह सुन्दर पुरुष को खोज नहीं करती है । वह एक प्रेम करने वाले और उसे समझने वाले पुरूष की खोज करती है । स्त्री की यह खोज कभी भी नहीं रुकती है । वह सदैव उसे ही खोजती रहती है । जिस पर वह अपने प्रेम की वर्षा करे ।
स्त्री की इसी निरंतर खोज पर पुरुष उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है । एक विफल पुरुष और कर भी क्या सकता है । केवल स्त्री पर प्रश्न चिन्ह लगाने के सिवाय ।
विकृत पुरुष की वासना के भिक्षा पात्र में कभी भी प्रेम नहीं समा सकता है । इसीलिए तो स्त्री उस पुरुष को खोजती है, जो उसके प्रेम के योग्य हो । उसे शुद्ध प्रेम, वह भी गहराई से करने वाला हो । स्त्री को वासना नहीं चाहिए ।
वह प्रेम के गहनता तक उतरना चहाती है । वह रुह के स्पर्श तक प्रेम करना चहाती है । वह अमर प्रेम खोजती है जो एकरुपता से उसे प्रेम करें । प्रेम की बरखा में रंग जाना चहाती है । वह प्रेम से रंगने वाला रंगरेज खोजती है । और शायद इसीलिए स्त्री प्रेम की चाह में अपना देह प्रेमी पुरुष को सौप देती है और पुरुष देह की लालसा में प्रेम करता है !
किन्तु आधुनिक समाज में अब स्त्री ईश्वरीय व्यवस्था के विपरीत जा कर प्रेम नहीं धन, दौलत, सुविधा और सुरक्षा ढूंढ रही हैं ! इसीलिये उनके गर्भ से उत्पन्न होने वाले बच्चे भी विकृत ही नहीं बल्कि हिंसक भी पैदा हो रहे हैं !
पुरुष तो सदैव से हिंसक और आक्रान्ता रहा है ! इसी प्रवृत्ति के कारण उसने करोड़ों युद्ध लड़े हैं ! हजारों सर्वनाश किये हैं ! यदि स्त्री भी पुरुष बनने की चाहत में वैसी ही हिंसक हो जायेगी तो समाज और सृष्टि दोनों का क्रम रुक जायेगा !!