सनातन धर्म साहित्य में विश्व और लोक में अंतर है ! यहां विश्व का तात्पर्य समस्त भूमंडल के भूभाग से है ! जिसकी एक निश्चित काल पहले उत्पत्ति हुई थी और जो समय-समय पर काल के प्रवाह में अपने स्वरूप को बदलता रहता है और अंततः एक दिन इसका विनाश सुनिश्चित है !
अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाये तो विश्व का तात्पर्य सृष्टि के उस भौतिक स्वरूप से है ! जिसको देखा, समझा, जाना और इंद्रियों से महसूस किया जा सकता है ! जिसके भौतिक संसाधनों का हम अपनी सुख सुविधा के लिये दोहन और उपभोग करते हैं !
प्राय: विश्व के छोटे भूखंड जिसे देश अर्थात राष्ट्र कहा जाता है ! उनके नागरिक विश्व के उस छोटे भूखंड को विशेष अंश मान कर उस पर अपना जन्म सिद्ध पैतृक अधिकार समझते हैं और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान तक निछावर कर देते हैं और किसी दूसरे देश को अपने देश पर अधिकार नहीं जमाने देते हैं !
जबकि लोक की अवधारणा विश्व से भिन्न है ! लोक का तात्पर्य इस समस्त विश्व में भ्रमण करने वाले किसी भी व्यक्ति, जीव, जंतु, वनस्पति या ऐसी कोई भी अन्य योनि की जीवात्मा से है ! जो किसी भी रूप में इस विश्व में विद्यमान है !
अर्थात स्थिति एकदम साफ है कि विश्व का तात्पर्य भौतिक है जबकि लोक का तात्पर्य विभिन्न योनियों में उत्पन्न हुई जीवात्मा से है !
इसीलिये श्रीमद्भगवद्गीता के 11 में अध्याय के 18 श्लोक में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से विराट स्वरूप के दर्शन के उपरान्त कहते हैं कि
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं, त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता, सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।11.18।।
अर्थात आप ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं; आप ही इस विश्व के परम आश्रय (निधान) हैं ! आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं, ऐसा मेरा मत है।।
इसी को आदि गुरु शंकाराचार्य ने एक सूत्र में कहा है ! ‘ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापराह’ अर्थात ब्रह्म (जीव) ही सत्य है शेष जगत (विश्व) मिथ्या है ! इसलिये जीव को ही ब्रह्म जानो !
अर्थात अब स्पष्ट है कि विश्व का तात्पर्य जगत से ही है ! जिस पर माया का प्रभाव है ! जो पूरी तरह नश्वर है और एक दिन नष्ट हो जायेगी ! किन्तु लोक का तात्पर्य जीव से है ! जो अमर है ! अविनाशी है ! ईश्वर का अंश है ! इसके ईश्वर बनने की संभावना है ! यह कभी नष्ट नहीं होगा !
इसीलिये हमारे धर्म शास्त्र सदैव से विश्व कल्याण की अपेक्षा लोक कल्याण की बात करते चले आये हैं !
जो इस रहस्य को नहीं समझ पाता है ! वह विश्व के कामनाओं में बंध कर बार-बार इस पृथ्वी पर आता-जाता रहता है ! लेकिन जो व्यक्ति विश्व के स्थान पर लोक के भाव को समझ लेता है ! वह विश्व के आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है ! यही मोक्ष है !
जो मोक्ष लोक को स्वत: प्राप्त है ! किंतु विश्व में व्याप्त माया के प्रभाव से व्यक्ति जन्म जन्मांतर तक उसे समझ नहीं पाता है और कामनाओं के प्रभाव में उलझ कर इस विश्व में आता जाता रहता है !
यही अंतर है विश्व और लोक में ! इसलिये लोक कल्याण की बात करें ! तो विश्व का कल्याण स्वत: हो जायेगा ! इसके लिये किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं है ! यही सनातन धर्म शास्त्रों का रहस्य है !!