प्राय: वैष्णव विचारकों के मुख से यह बात सुनने में आती है कि लक्ष्मी और सरस्वती का मेल नहीं है अर्थात जो व्यक्ति संपन्न है वह विद्वान नहीं हो सकता और जो विद्वान है वह संपर्क नहीं हो सकता है !
लेकिन यह वैष्णव दर्शन नितांत अव्यवहारिक और षड्यंत्रकारी है !
वैष्णव जीवन शैली की सदैव से यह सोच रही है कि सामान्य व्यक्ति सदैव ही पराधीन पराआश्रित जीवन यापन करे !
इसके लिए उन्होंने अवतार और राजा की व्यवस्था के साथ नगरीय जीवन शैली को स्थापित किया है !
साथ ही समाज के सबसे प्रबुद्ध वर्ग ब्राह्मण को संग्रह का अधिकार नहीं दिया है ! जिससे वह समाज में आर्थिक रूप से अपने भविष्य को सुरक्षित न कर सके !
ब्राह्मण का कार्य पूरी पृथ्वी पर घूम घूम कर ज्ञान देना है और बदले में भिक्षाटन के जीवन यापन करना है !
जो ब्राह्मण इस कर्तव्य का अनुपालन नहीं करता है, उसके लिए शास्त्रों में दंड का भी विधान है !
इसी तरह जो व्यापार-व्यवसाय द्वारा अपनी संपन्नता को विकसित करता है, उसे समाज में तीसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है ! जिसे वैश्य कहा गया है !
अर्थात वैष्णव सामाजिक व्यवस्था में जो व्यक्ति बुद्धिजीवी है, उसे धर्म के द्वारा संग्रह के अधिकार से वंचित किया गया है और जो व्यक्ति संपन्न है, उसे सामाजिक ढांचे में तीसरे स्तर का नागरिक घोषित किया गया है !
इस तरह वैष्णव जीवन शैली में लक्ष्मी और सरस्वती की कृतिमा शत्रुता पैदा की गई है !
जबकि शैव जीवन शैली में ऐसा नहीं है, शैव जीवन शैली में सीधा का दर्शन है कि जब व्यक्ति ने पंच तत्वों से पोषित शरीर को धारण कर लिया है, तो सबसे पहले उसे अपने शरीर के पोषण के लिए सभी सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करना उसका जन्मसिद्ध मौलिक अधिकार है !
क्योंकि शैव जीवन शैली में माना गया है कि यदि व्यक्ति के शरीर का पोषण नहीं होगा, तो वह समाज में विकृति पैदा करेगा !
इसलिए समाज को विकृत से बचाने के लिए सबसे पहले व्यक्ति के शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का व्यक्ति को मौलिक अधिकार दिया गया है ! इस पर किसी भी तरह का सांसारिक प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है !
इस मौलिक अधिकार के साथ व्यक्ति साधना द्वारा आत्म चेतना का विकास करता है, जिससे व्यक्ति विदेह की स्थिति को प्राप्त कर संसार से मुक्त की यात्रा कर सकने में सफल होता है !
इसलिए जहां पर वैष्णव जीवन शैली में एक तरफ सरस्वती और लक्ष्मी को शत्रु बतलाया गया है, वहीं शैव जीवन शैली में मनुष्य की संपन्नता व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता है ! इसके बाद ही व्यक्ति अपना और समाज का कल्याण कर सकता है !
जो नितांत व्यवहारिक दिखाई भी देता है, इसलिए कहा जा सकता है कि समाज में दरिद्रता का विस्तार वैष्णव जीवन दर्शन की देन है !!