क्या विश्व सत्ता का षडयंत्र राष्ट्रवाद को निगल जायेगा : Yogesh Mishra

भारत में हमारे पास विरासत के जीवंत पैटर्न एवं पद्धतियों के अनमोल एवं अपार भंडार हैं ! 1400 बोलियों तथा औपचारिक रूप से मान्‍यता प्राप्‍त 18 भाषाएं, विभिन्‍न धर्मों, कला, वास्‍तुकला, साहित्‍य, संगीत और नृत्‍य की विभिन्‍न शैलियां, विभिन्‍न जीवनशैली, प्रतिमानों के साथ, भारत विविधता में एकता के अखंडित स्‍वरूप वाला सबसे बड़े प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्‍व करता है, शायद विश्‍व में यह सर्वत्र अनुपम है !

परिवर्तनशील अधिवासों तथा राजनीतिक सत्‍ता के इतिहास के बावजूद भारत की वर्तमान सांस्‍कृतिक विरासत के स्‍वरूप का निर्धारण सैकड़ों अनुकूलनों, मनोरंजनों तथा सह-अस्‍तित्‍व के आधार पर निर्धारित हुआ ! भारत की अमूर्त सांस्‍कृतिक विरासत लम्‍बी समयावधि से समुदायों द्वारा अपनाए जा रहे विचारों, पद्धतियों, विश्‍वासों तथा मूल्‍यों में अपनी अभिव्‍यक्‍ति पाती है और राष्‍ट्र की सामूहिक स्‍मृति का हिस्‍सा बनता है !

भारत का भौतिक, नृजातीय तथा भाषायी विविधता इसकी सांस्‍कृतिक विविधता की तरह ही अद्भुत है, जो आपसी संबद्धता के सांचे में विद्यमान है ! कुछ मामलों में, इसकी सांस्‍कृतिक विरासत को अखिल भारतीय परंपरा के रूप में परिभाषित किया जाता हे जो किसी विशिष्‍ट क्षेत्र, शैली या श्रेणी तक ही सीमित न होकर विविध रूपों, स्‍तरों तथा स्‍वरूपों का है जो आपस में सम्‍बद्ध होते हुए भी एक दूसरे पर आश्रित नहीं है ! भारत की विरासत की विविधता को रेखांकित करने से हमें यह पता चलता है कि यह सभ्‍यता प्राचीनतम समय से अब तक विद्यमान है और बाद में विभिन्‍न प्रभावों से इसमें संवर्धन होता रहा है !

विश्व सत्ता की प्रक्रिया ने राष्ट्रवाद को ज़बरदस्त चुनौती दी है ! बीसवीं सदी के आख़िरी दो दशकों और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बाद कहा जा सकता है कि कम से कम दुनिया का प्रभु वर्ग एक सी भाषा बोलता है, एक सी यात्राएँ करता है, एक सा ख़ाना खाता है ! उसके लिये राष्ट्रीय सीमाओं के कोई ख़ास मायने नहीं रह गये हैं ! इसके अलावा आर्थिक विश्व सत्ता, बड़े पैमाने पर होने वाली लोगों की आवाजाही, इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन जैसी प्रौद्योगिकीय प्रगति ने दुनिया में फ़ासलों को बहुत कम कर दिया है !

ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो अपने देश और सांस्कृतिक माहौल से दूर काम और जीवन की सार्थकता की तलाश में जाना चाहते हैं ! युरोप की धरती ने राष्ट्रवाद को जन्म दिया था और वहीं अब युरोपीय संघ का उदय राष्ट्रवाद का महत्त्व कम कर रहा है ! इस नयी परिस्थिति में कुछ विद्वान कहने लगे हैं कि जिन ताकतों ने कभी राष्ट्रवाद को मज़बूत किया था, वे ही उसके पतन का कारण बनने वाली हैं ! राष्ट्रीय संरचनाओं के बजाय राष्ट्रों से परे जाने वाले आर्थिक और राजनीतिक गठजोड़ आने वाली सदियों पर हावी रहेंगे !

इन दावों में सच्चाई तो है, लेकिन केवल आंशिक किस्म की ! एक राजनीतिक ताकत के रूप में राष्ट्रवाद आज भी निर्णायक बना हुआ है ! पूर्व में चल रहे सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन, दुनिया भर में हो रही नस्ल और आव्रजन संबंधी बहस और पश्चिम का बीपीओ (बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्स) संबंधी विवाद इसका प्रमाण है ! आज भी फ़िलिस्तीनियों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का आंदोलन जारी है ! ईस्ट तिमूर इण्डोनेशिया से हाल ही में आज़ाद हो कर अलग राष्ट्र बना है !

विश्व सत्ता की प्रक्रिया ने राष्ट्रवाद के बोल बाले को कुछ संदिग्ध अवश्य कर दिया है ! पर इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उदारतावादी और लोकतांत्रिक राज्य से गठजोड़ करके ग़रीबी और पिछड़ेपन के शिकार समाजों को आगे ले जाने में राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता ! सभी उत्तर-औपनिवेशिक समाजों ने अपने वैकासिक लक्ष्यों को वेधने के लिये राष्ट्रवाद का सहारा लिया है ! ख़ास तौर से भारत जैसे बहुलतामूलक समाजों को एक राजनीतिक समुदाय में विकसित करने में राष्ट्रवाद एक प्रमुख कारक रहा है !

लेकिन अब विश्व सत्ता की आंधी में राष्ट्रवाद जैसा विषय तिनके की तरह उड़ता दिखाई दे रहा है ! जिस राष्ट्र की रक्षा के लिये हमारे यहां 6 करोड़ से अधिक लोगों ने स्वेच्छा से शहादत दी थी ! वह राष्ट्रवाद अब विश्व सत्ता की सोच के आगे एक अनुपयोगी निरर्थक शब्द से अधिक और कुछ नहीं है !

या दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व का विभिन्न “राष्ट्रवाद” ही वह अवरोधक सोच है ! जो विश्व सत्ता को कायम होने में सबसे अधिक परेशानी पैदा कर रहा है ! इसीलिये विश्व सत्ता की नुमाईनदे शिक्षा और मीडिया जगत के माध्यम से विश्व के हर नागरिक में राष्ट्रवाद नामक सोच को खत्म कर देना चाहते हैं !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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