आज संस्कृत भाषा के विषय में हमारे पास कई मिथ्या सूचनायें हैं ! उनमें से सब से प्रसिद्ध सूचना यह है कि संस्कृत भाषा के व्याकरणकर्ता कौन थे ? यदि कोई आप से कहे कि महर्षि पाणिनि संस्कृत के व्याकरण रचयिता है तो आप समझ सकते हैं कि वह व्यक्ति अधिकांश लोगों की तरह इस विषय में अज्ञानी है ! इसमें उनका दोष नहीं है बल्कि यह तो हमारी ही गलती है कि हम अन्य प्राचीन संस्कृत भाषा के व्याकरणविदों को भूल गये हैं ! यह भी सत्य है कि आधुनिक संस्कृत व्याकरण में विदेशियों का भी योगदान रहा है !
संस्कृत व्याकरण शास्त्र का वृहद् इतिहास है ! संस्कृत किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित और मानकीकृत नहीं है ! इसे कई महान विद्वानों ने अपने संयुक्त ज्ञान से परिपक्व किया है और कई शताब्दियों के प्रयास के बाद यह प्राचीन संस्कृत भाषा अपनी औपचारिक संरचना बना पायी थी ! उनमें से सबसे अधिक प्रसिद्धि पाणिनि को मिली है ! जो अपने अष्टाध्यायी के लियह प्रसिद्ध हुये थे !
इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल वह ही संस्कृत व्याकरण के संस्थापक या जनक थे ! स्वयं पाणिनि अपने अष्टाध्यायी में उनसे पूर्व काल के “ऐंन्द्र” नामक व्याकरण ग्रन्थ का उल्लेख करते हैं ! यह माना जाता है कि अष्टाध्यायी भी संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ “महेश्वर सूत्र” से प्रेरित हैं !
संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था ! नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात ! यह चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे ! पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले भी कई व्याकरणाचार्य संस्कृत व्याकरण पर कई ग्रन्थ लिखे जा चुके थे ! जिनमें “आपिशलि” और “काशकृत्स्न” के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं ! किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से ही आरंभ होता है !
संस्कृत व्याकरण शास्त्र का वृहद् इतिहास है ! किन्तु आधुनिक संस्कृत व्याकरण का महामुनि पाणिनि और उनके द्वारा प्रणीत अष्टाधयायी ही इसका केन्द्र बिन्दु है ! पाणिनि ने अष्टाधयायी में 3995 सूत्रें की रचनाकर भाषा के नियमों को व्यवस्थित करने के लिये किया गया था ! जिसमें वाक्यों में पदों का संकलन, पदों का प्रकृति, प्रत्यय विभाग एवं पदों की रचना आदि प्रमुख तत्व हैं !
इन नियमों की पूर्त्ति के लिये धातु पाठ, गण पाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि ने ही बनाये थे ! सूत्रों में उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त विषयों का विचार कर कात्यायन ने वार्त्तिक की रचना में किया गया है ! जबकि बाद में महामुनि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना कर संस्कृत व्याकरण को पूर्णता प्रदान की थी ! इसमें इन्हीं तीनों आचार्यों को ‘त्रिमुनि’ के नाम से भी जाना जाता है ! प्राचीन संस्कृत व्याकरण में इनका अनिवार्यतः अध्ययन किया जाता है !
इनके अलावा वेद व्यास और महर्षि वाल्मीकि जैसे कई प्राचीन संतों और कवियों ने अपने ग्रंथों में ऐसे छंद लिखे हैं जो अन्य व्याकरणियों के मानकीकरण के अनुरूप नहीं हैं और न ही इनकी रचना की वैदिक शैली से ही मेल खाती है ! इसलिये उन्हें भी उनके अधिकार में एक श्रेष्ठ व्याकरणिक भी माना जा सकता है !
आधुनिक संस्कृत व्याकरण के इतिहास में यूरोप के विद्वानों का भी योगदान रहा है ! पी. सासेती ने जो 1583 से 1588 तक भारत में था ! संस्कृत और इटली की भाषा का साम्य दिखलाया था ! किन्तु संस्कृत का नियमबद्ध व्याकरण जर्मन-यहूदी जे. ई. हाक्सेलेडेन ने लिखा था ! उसकी अप्रकाशित कृति के आधार पर जर्मन पादरी पौलिनस ने 1790 में संस्कृत का व्याकरण प्रकाशित किया जिसका नाम “सिद्ध रुबम् स्यू ग्रामाटिका संस्कृडामिका” था !
फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक डॉ॰ विलियम कैरे ने 1802 में संस्कृत का व्याकरण अँगरेजी में प्रकाशित किया था ! विलियम कोलब्रुक ने 1805 में, विलकिन्स ने 1808 में, फोरेस्टर ने 1810 में, संस्कृत के व्याकरण लिखे थे ! 1823 में ओथमार फ्रांक ने लैटिन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा था ! 1834 में बोप्प ने जर्मन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा जिसका नाम “क्रिटिशे ग्रामाटिक डे संस्कृत स्प्राख” है ! बेनफी ने 1863 में, कीलहार्नं ने 1870 में, मॉनिअर विलियम्स ने 1877 में और अमरीका के ह्विटनी ने 1879 में अपने संस्कृत व्याकरण प्रकाशित किया था !
एल. रेनो ने फ्रेंच भाषा में संस्कृत व्याकरण (1920) और वैदिक व्याकरण (1952) प्रकाशित किये थे ! गणपाठ और धातुपाठ के संबंध में वेस्टरगार्द का रेडिसेज लिंग्वा संस्कृता (1841), बोटलिंक का पाणिनि ग्रामाटिक (1887), लीबिश का धातुपाठ (1920) ओर राबर्टं बिरवे का “डर गणपाठ” (1961) उल्लेखनीय हैं ! यूरोप के विद्वानों की कृतियों में मैकडोनेल का “वैदिक ग्रामर” (1910) और वाकरनागेल का “आल्ट्इंडिश ग्रामटिक” (3 भाग, 1896-1954) उत्कृष्ट ग्रंथ हैं ! अंग्रेजी में लिखित श्री काले का “हायर संस्कृत ग्रामर” भी प्रसिद्ध है !
इन बातों से यह स्पष्ट है कि आज के काल में जो आधुनिक संस्कृत व्याकरण उपलब्ध है वह मात्र पाणिनि का कार्य नहीं था बल्कि इस पर वैष्णव ग्रन्थ लेखन परम्परा के तहत आदि काल से ही कार्य हो रहा था !