जीवन में सत्य को खोजने के दो ही मार्ग हैं ! एक विज्ञान का मार्ग है ! आक्रमण, हिंसा, शोध, छीना-झपटी अर्थात संवेदना और भावना विहीन मार्ग और दूसरा स्वीकार्य और समर्पण का मार्ग !
सनातन धर्म के अनुसार यदि ईश्वर के रहस्य को समझना है तो आप को स्वीकार्य और समर्पण के मार्ग पर ही आगे बढ़ना होगा क्योंकि ईश्वर अदृश्य है, ऊर्जा रूप है, अनंत है, अपौरुषेय है ! इसलिए विज्ञान की पकड़ के बाहर है !
इसीलिये हमारे सभी धर्म ग्रन्थ परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते हैं ! वह नमस्कार केवल औपचारिक नहीं है ! वह केवल कोई परंपरा और रीति नहीं है !
बल्कि यह नमस्कार इंगित है कि साधक का मार्ग समर्पण का है, जो विनम्रता पूर्वक ईश्वर के रहस्य को समझने को उत्सुक है !
यह आक्रमण या अहंकार से ईश्वर को नहीं जानना चाहता है ! बल्कि यह जिज्ञासु ईश्वर के रहस्य को संपूर्ण समर्पण और संवेदना से जानना चाहता है ! क्योंकि उस अनंत ईश्वर को जानने का यही एक मात्र मार्ग है !
यदि व्यक्ति संवेदनशील नहीं है, तो वह कितने भी धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर ले, कभी भी ईश्वर के रहस्य को जान नहीं सकता है ! इसी तरह यदि व्यक्ति का ईश्वरीय सत्ता में समर्पण नहीं है, तब भी वह व्यक्ति ईश्वर को नहीं जान सकता है !
अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ईश्वर को जानने की बेसिक शर्त ही यह है कि व्यक्ति संवेदनशील और समर्पित हो !
हमारे धर्म ग्रंथों को लिखने वाले ऋषि, मुनि, मनीषी, चिंतक, विचारक, जिन्होंने ईश्वर के रहस्य को जानने पर अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया ! वह निश्चित रूप से ईश्वरी सत्ता के प्रति संवेदनशील और समर्पित थे !
इसीलिए हमारे सभी धर्म ग्रंथ प्रार्थना से शुरू होते हैं ! क्योंकि धर्म ग्रंथों में ईश्वर को जानने के लिये किसी भी विज्ञान या हिंसा का समावेश नहीं किया जा सकता है !