वैसे तो महाभारत के वन पर्व में लोमश ऋषि युधिष्ठिर को अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद की कथा सुनाते हैं ! इसी संवाद को कालांतर में अष्टावक्र गीता के नाम से जाना गया ! जो अद्वैत वेदान्त अर्थात शैव उपासना पध्यति का ग्रन्थ है !
जनक का संबोधन यहाँ इक्ष्वाकु पुत्र निमि के शिव भक्त परम्परा के सूर्यवंशी विदेही शासकों से है ! जिस परम्परा में अनेकों शासक हुये हैं ! इन सभी के नाम अलग अलग थे !
यहाँ राजा जनक शब्द का सम्बन्ध ऐसे शासक से है, जो अपने जनता का पोषण पुत्र के समान करता हो ! अर्थात जो निरंकुश और अत्याचारी शासक न हो ! इनकी राजधानी मिथिला थी !
मिथिला राज्य वर्तमान में एक सांस्कृतिक क्षेत्र है ! जिसमे बिहार के तिरहुत, दरभंगा, मुंगेर, कोसी, पूर्णिया और भागलपुर प्रमंडल तथा झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल के साथ साथ नेपाल के तराई क्षेत्र के भी कुछ भाग शामिल हैं !
राजा जनक, आत्म ज्ञानी बालक अष्टावक्र से पूछते हैं कि हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, यह सब आप मुझे बतलाईये !
राजा जनक ने अष्टावक्र से मुक्ति के विषय में पूंछा है, मोक्ष के विषय में नहीं ! अर्थात सिद्ध होता है कि मुक्ति मोक्ष से श्रेष्ठ है !
अब चर्चा करते हैं कि मुक्ति और मोक्ष में क्या अंतर है ! मुक्त जीव की परिपक्व अवस्था है और मोक्ष अपरिपक्व अवस्था है !
इसको एक उदाहरण से समझते हैं ! जैसे दो बच्चे संसार रूपी विद्यालय में आत्म प्रशिक्षण की शिक्षा लेने के लिये आये हैं ! जिसमें एक बच्चा अति गंभीरता के साथ ज्ञान अर्जन कर रहा है !
क्योंकि वह यह जानता है कि इस ज्ञान रूपी प्रशिक्षण को अर्जित कर लेने के बाद वह इस संसार में धन और यश अर्थात सांसारिक सफलता तो आसानी से अर्जित करेगा ही साथ ही मुक्ति को भी प्राप्त करेगा !
इसी के विपरीत दूसरा बच्चा जो आत्म प्रशिक्षण की शिक्षा को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं है ! वह मात्र अपना समय पास करने के लिए विद्यालय के आता है और उसका पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता है ! वह प्रतिक्षण स्कूल के अंतिम घंटी बजने का इंतजार करता रहता है ! उस जीव की यह मानसिक स्थिति मोक्ष प्राप्त करने की है ! जो उसे न तो इस लोक में ही सफल होने देती है और न ही परालोक में शान्ति देती है !
यह जीव की ईश्वरीय प्रशिक्षण के आभाव में अपरिपक्व अवस्था होती है ! जो उसे बार-बार जन्म मरण के चक्र में फंसाये रहती है !
इस तरह मुक्ति में जीव परिपक्व अवस्था को प्राप्त करता है और इसके विपरीत मोक्ष की कामना करने वाला जीव अपरिपक्व अवस्था में ही उलझा रहता है, इसलिए सदैव मुक्ति मोक्ष से श्रेष्ठ है !!