आध्यात्मिक दिव्य ऊर्जा का क्षय कैसे हो जाता है ? क्षय होने से बचाने के उपाय !

आध्यात्मिक दिव्य ऊर्जा के क्षय का सबसे प्रमुख कारण मन के सभी छोटे और बड़े नकारात्मक विचार होते हैं | ऐसे विचारो मे अधिकांशतः विचार तुलनात्मक , निषेधात्मक और अपेक्षात्मक होते हैं, जो कि मानव मन को असहज बना देते हैं | भविष्य की आवश्यकता से भी अधिक चिन्ता भी मन को असंतुलित कर देती है | भूतकाल और भविष्य काल का निरंतर विचार करते रहने से हो रहे शारीरिक और मानसिक असंतुलन का कारण आध्यात्मिक दिव्य ऊर्जा भी असंतुलित हो जाती है | जिससे ऊर्जा का क्षय हो जाता है | सकारात्मक विचार आध्यात्मिक ऊर्जा को गति प्रदान करते है | सकारात्मक विचार ऊर्जा को समय रहते सही दिशा देने पर उत्तम आतंरिक और वाह्य परिस्थितियों का निर्माण होता है | जो हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक है |

जैसे कि हम सभी जानते है कि ऊर्जा का हस्तान्तरण पाँच विधियों के द्वारा होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ऊर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुचाने के वाहक होते हैं | कटु, तीखे, क्रोधी, निन्दक और व्यंगात्मक शब्दों का यदि प्रयोग किया जाये तो ऊर्जा की हानि होती है | यही कारण है कि साधनाकाल में तथा अन्य समय में भी किसी भी प्रकार से प्रेरित होकर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये | किसी को अशीर्वाद दिया जाये अथवा श्राप ; दोनों ही स्थिति मे स्वयं की तपस्या से अर्जित की गयी ऊर्जा शब्दों के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाती है और उस समय की गयी इच्छा के अनुरूप दुसरे व्यक्ति को फल देती है |

तामसिक भोजन, मांस, मदिरा, धूम्रपान इत्यादी का उपयोग भी आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास का प्रमुख कारण है |ऐसा भोजन अपने प्रभाव से 2-4 दिन तक ऊर्जा के स्तर को नीचे गिरता रहता है |

इसी प्रकार जब नकारात्मक विचारधारा के साथ जब भोजन बनाया जाता है तो स्पर्श के साथ विचारों की ऊर्जा पदार्थों मे प्रवेश कर उसकी सात्विक शक्ति को कम कर देते है | नकारात्मक व्यक्तियों के साथ हाथ मिलाने, उनके द्वारा दिए हुए वस्त्र पहनना अथवा उनके वस्त्र पहनने से भी उनकी ऊर्जा दूसरे व्यक्ति के अंदर प्रवेश कर अस्थिरता , बेचैनी और क्रोध जैसे अन्य विकार उत्पन्न करते हैं ।

सड़न इत्यादि से पैदा हुई और अन्य अप्रिय लगने वाली गंध वायु के माध्यम से नासिका से होती हुई सीधे सूक्ष्म शरीर को प्रभवित करती है और यह नकारात्मक ऊर्जा भौतिक एवम सूक्ष्म शरीर के मध्य से आध्यात्मिक ऊर्जा मे असंतुलन पैदा करती है |

इन्ही सब कारणों से अध्यात्म में मन की शुद्धता , भोजन , वाणी और स्पर्श इत्यादि की सावधानी पर बहुत अधिक बल दिया गया है | जिससे दिव्य आध्यात्मिक ऊर्जा का संचय होकर मात्रा मे वृद्धी होती है | इसीलिए साधक को सदैव नकारात्मक व्यक्ति, वस्तुओं अथवा परिस्थितियों से स्वयं को तब तक अलग रखना चाहिये जब तक ऊर्जा को स्थायित्व प्रदान नहीं हो जाता अर्थात अनचाहे ऊर्जा हस्तानन्तरण पर नियन्त्रण करना नहीं आ जाता है |

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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