ब्रह्मा विष्णु महेश का गूढ़ रहस्य विस्तार से समझें | Yogesh Mishra

जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड अर्थात शरीर में है ! सृष्टि रचना के पूर्व केवल सुई की नोक से एक करोड़ वें अंश के रूप में ब्रह्म तत्व विद्यमान था ! जिसमें ब्रह्म ऊर्जा के प्रवेश से ब्रह्माण्ड की रचना हुई ! जिसे अब आधुनिक वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं और उन्होंने इसे ‘ब्लैक होल’ अर्थात “कृष्ण मंडल” कहा है ! कल्पान्त में भी सभी कुछ इस शून्य में अर्थात कृष्ण मंडल में समाहित हो जायहगा !

जीव की अति कमाना को देख कर ब्रह्म के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि जीव की कमाना पूर्ति के लियह ब्रह्माण्ड की रचना की जायह ! अत: उसने संकल्प लिया “एकोऽहम् बहुस्याम्” अर्थात मैं एक हूं अनेक हो जाऊं ! इस विचार की प्रतिध्वनि से कृष्ण मंडल में ब्रह्म ऊर्जा का प्रवेश हुआ और ब्रह्म तत्व में विस्तार शुरू हुआ ! कालांतर में ब्रह्म तत्व में विस्फोट हुआ और ॐ ध्वनि के साथ सृष्ठी का निर्माण हुआ ! इसीलियह ॐ ध्वनि को आदि ध्वनि या इसे नाद ब्रह्म कहा गया !

शब्द अथवा ध्वनि की उत्पत्ति किन्हीं दो पदार्थों के स्पर्श से ही संभव है ! अब जब प्रारंभ में केवल ब्रह्म ही था ! प्रकृति पूर्णतःशून्य स्थिति में थी तो फिर स्पर्श कैसा ! सर्व साधारण मनुष्यों को समझाने के लियह ब्रह्म की उपमा आकाश से की गई है ! आकाश को प्रकृति के पांच तत्वों में से एक और प्रथम तत्व माना गया है ! आकाश अर्थात अवकाश रिक्ता और इसका आकार हर स्थान से गोल ही दिखता है !

विशाल सागर में जैसे लहरें उत्पन्न होती हैं ! वैसे ही कुछ आकश में भी ऊर्जाओं के साथ हुआ करता है ! उन आकाशीय तरंगों के एक दूसरे के साथ स्पर्श से ही वह ब्रह्म ध्वनि निकली है ! जिसे ग्रहों की ध्वनि कहते हैं ! यह सभी ग्रहों में अलग अलग तरह की निकलती है ! यह आकाशीय तरंगे जिनके द्वारा नाद ब्रह्म ॐ प्रसारित होता है ! उसे वायु कहा गया है !

जो सनातन संस्कृति और परम्परा में प्रकृति का द्वितीय तत्व है ! आगे चलकर आकाश में स्थित वायु के अति संघर्षण से जो ऊष्णता उत्पन्न्न हुई ! इसे तेज यानी अग्नि कहा गया है ! यह प्रकृति का तृतीय तत्व है ! वायु और अग्नि के मिश्रण से जल की उत्पत्ति हुई है ! यह प्रकृति का चौथा तत्व है ! आधुनिक विज्ञान ने भी जल को वायु (आक्सीजन) और अग्नि (हाइड्रोजिन) का मिश्रण माना गया है ! इस जल तत्व से पांचवें तत्व पृथ्वी की उत्पति हुई है ! इस प्रकार सृष्टि के मूल में यह पांच तत्व ही हैं ! जिन्हें पंचमहाभूत कहा गया है !

प्रकृति का जो मूल स्वरूप ब्रह्माण्ड के नाम से भी जाना जाता है ! इसके तीन गुण बतलाये गये हैं ! सत्व, रज और तम ! यह तीनों गुण प्रकृति की सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में कम या अधिक मात्रा में रहते ही हैं ! और उस मात्रा के आधार पर ही उस पदार्थ के स्वभाव का निर्धारित होता है ! यही से पञ्च महाभूतों के गुणों का निर्धारण होता है !

आकाश तत्व में सत्व गुण ही हैं ! अतः यह शान्त, स्थिर, साक्षी स्वरूप है ! वायु में सत्व व रज का मिश्रण है ! अग्नि तत्व में रजोगुण की प्रबलता है ! जल रज व तम का मिश्रण है और पृथ्वी में तमोगुण ही प्रमुख है ! सनातन परंपरा में पांच तत्वों को मान्यता प्राप्त है !

प्राचीन काल में ऋषियों, मुनियों ने प्रकृति और सृष्टि के रहस्यों पर अनुसंधान किया ! उन्होंने सृष्टि की तीन स्थितियां निर्धारित कीं ! आदि, मध्य और अंत अर्थात उत्पत्ति, स्थिति और विलय या जन्म, जीवन और मृत्यु !

वैसे तो विभिन्न पंचमहाभूतों के विविध प्रकार के मिश्रणों से स्वयंमेव पदार्थ बनते हैं ! किन्तु आगे चलकर ऋषियों मुनियों ने उपरोक्त तीन स्थितियों को तीन विभागों का स्वरूप दे दिया है ! इस व्यवस्था के अंतर्गत उन तीन विभागों के व्यस्थापक अथवा विभागाध्यक्ष ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं ! जिसमें सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता ब्रह्मा, पालन पोषणकर्ता विष्णु और संहारक अर्थात मृत्युदाता शिव हैं ! उपरोक्त प्रकार से ऋषि-मुनियों ने सर्वसाधारण मनुष्य के सामने प्रकृति के इस रहस्य को रखा है !

सृष्टि के सर्वप्रथम जन्मदाता ब्रह्मा हैं ! जिसका निवास है नाभि से निकला हुआ कमल अर्थात मनुष्य के शरीर में नाभि के पीछे से गया हुआ मेरुदंड जिसकी कल्पना “कमल दंड” से की गई है ! उसके ऊपर स्थित कपाल ही वह कमल है ! जिसमें ब्रह्मा जी का निवास है ! यहीं से वह बीज निर्मित होता है ! जो वीर्य के साथ हार्मोन्स के रूप में जाकर गर्भ धारण करता है !

जिसे गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ‘मम योनि मद्धब्रह्म तस्मन्गर्भ द्दाम्यहम्’ (14-3)’ ‘तासां ब्रह्म मध्द्योनिरहं बीजप्रदः पिता (14-4)’ !’ ब्रह्मा द्वारा अर्थात प्रजनन प्रणाली में पुरुष के शुक्राणु (बीज) का स्त्री योनि द्वारा गर्भ में प्रवेश और वहां जीवांड से मिलन के विस्फोट से नये जीव की रचना होती है !

जैसे वनस्पति शास्त्र के अनुसार भी बीज का पृथ्वी रूपी योनि में प्रवेश से पेड़ पौधों की उत्पत्ति होती है ! यह ही सृष्टि संचालन की आदि व्यवस्था है !

विष्णु का निवास स्थान क्षीरसागर में शेषनाग पर बतलाया गया है और मनुष्य शरीर में विष्णु का निवास स्थान नाभि है ! ! गर्भावस्था में भी भगवान विष्णु नाभिनाल के द्वारा ही शिशु का पोषण उसके बाहर आने तक करते हैं ! जन्म उपरांत इस क्षेत्र में खाद्य नलिका, जठर, यकृत, आंतें, तथा गुर्दे आते हैं ! विष्णु का दायित्व है प्राणी के अस्तित्व को स्थापित करना ! उसके जीवन की रक्षा करना, पोषण करना ! जो सभी कुछ नाभि क्षेत्र से होता है ! यह पूरा तंत्र ग्रहण किये हुये अन्न से सत्व को निकालकर उसे रक्त में परिवर्तित कर शेष अवांछित पदार्थों को शरीर के बाहर निकाल देता है और पाचन तंत्र से रक्त हृदय स्थान तक पहुंच जाता है ! जहां से फेफड़ों में से शुद्ध होकर वह पुनः हृदय द्वारा पूरे शरीर में संचारित होकर शरीर को पुष्ट करता है ! यह पाचन प्रणाली ही शरीर को शक्ति अर्थात जीवन प्रदान करती है ! जो शरीर के मध्य भाग में स्थित हैं ! अतः इस क्षेत्र को विष्णु के आधिपत्य में माना जाता है !

हृदय में शिव का निवास है ! हृदय में रक्त नलिकायें वह जटा हैं जो जीवन रूपी गंगा को शरीर में अवतरित करती है ! शिव के सर पर स्थापित चन्द्रमा वह वाल्व है जो रक्त संचालन को नियंत्रित करता है ! गले में लपिटा हुआ सर्प बतालाता है कि विषाक्त अशुद्ध रक्त का विष निकाल कर यहीं से उसे शुद्ध करके पुनः पूरे शरीर में संचालित किया जाता है ! शिव के निकट बैठा नन्दी बतलाता है कि वह निरंतर जन्म से मृत्यु तक बिना थके आपकी सेवा करता रहता है और यदि यहाँ पर गड़बड़ी हो गई तो तत्काल महाकाल की कृपा से आपकी मृत्यु निश्चित है !

इसी लिये शिव के तीन प्रमुख रूप हैं ! शिव,शंकर और प्रलयंकर ! शिव जब समाधिस्थ हैं ! शांत हैं ! स्थिर हैं ! तो वह शिव हैं अर्थात कल्याणकारी हैं ! तब शरीर स्वस्थ व नीरोगी है ! इसी को गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया’ (18-61) ! अर्थात ईश्वर शब्द का प्रयोग अब तो सर्व साधारणतः भगवान के लिये किया जाता है परन्तु प्राचीन काल में ईश्वर शब्द महेश, महादेव, शिव के लिये ही प्रयुक्त होता था !

उपरोक्त गीता के श्लोकानुसार ईश्वर सभी के अन्तस में बैठकर अपनी माया द्वारा प्राणियों को यन्त्रवत घुमाकर भ्रमित करता है ! ईश्वर की यह माया कौन है ! उसे मन मस्तिष्क हृदेश में उपजे काम, लोभ, मद, मोह व अहंकार के भाव भाव को जान ! जिसे कहते हैं कंकर कंकर में शंकर कहते हैं ! यह महेश का शंकर स्वरूप मनुष्य के मन में काम, लोभ, मोह, लोभ आदि के कंकर मारता रहता है ! जिस प्रकार शांत सरोवर में कंकर फेंकने से लहरें उत्पन्न होती हैं ! वैसे ही कामना मनुष्य में हलचल लाती है !

ईश्वर की इस माया से उत्पन्न उद्विग्नता, तनाव का प्रभाव शरीर की अन्य प्रणालियों पर भी पड़ता है ! उनमें अधिक मात्रा में दोष उत्पन्न होते हैं ! उन अंगों में विभिन्न रोग प्रकट होते हैं और शरीर को मृत्यु की ओर ले जाते हैं !

महेश का महा भयंकर शस्त्र है ! त्रिशूल अर्थात क्रोध जिसकी तुलना अग्नि से की गयी है ! जब यह क्रोध का त्रिशूल चलता है तो जैसे शरीर में प्रलयंकारी अग्नि प्रज्वलित हो उठती है ! मस्तक में स्थापित सारे अवयव मानो आग उगलने लगते हैं ! आंखें लाल, नथुने फूली हुई, उनसे गर्म सांसें निकलती रहती हैं, कानों से जैसे धुआं निकल रहा हो ! यह महेश का प्रलयंकर स्वरूप है ! जिसका परिणाम नाश है, संहार है ! इस अवस्था में मनुष्य या तो दूसरों पर आधात करता है या स्वयं पर ! दोनों स्थितियों में मृत्यु की संभावना प्रबल होती है ! इसीलिये शिव को महाकाल भी कहा गया है !

यही है ब्रह्मा, विष्णु, महेश का गूढ़ रहस्य !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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