सुरक्षित रहना है तो लोकतंत्र नहीं अब ईश्वरीय तंत्र अपनाओ ! : Yogesh Mishra

ईश्वर द्वारा निर्मित प्रत्येक व्यवस्था के अपने कुछ गुण धर्म हैं ! जैसे सूरज के निश्चित समय पर उगता है ! अमावस्या और पूर्णिमा अपने समय पर होती है ! वनस्पति अपने समय पर उगती है और पशु-पक्षी भी अपने ऋतु में ही प्रजनन करते हैं अर्थात स्पष्ट है कि प्रकृति की अपनी एक निश्चित व्यवस्था है ! जो व्यक्ति या समाज प्रकृति की इस व्यवस्था के अनुरूप नहीं चलता है ! वह नष्ट हो जाता है !

इसी को शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रकृति के अनुरूप चलता है ! वह सुर है अर्थात वह व्यक्ति या समाज जो प्रकृति की व्यवस्था के साथ सुर में सुर मिला कर चलता है और जो व्यक्ति या समाज प्रकृति के सामान्य अनुक्रम के विपरीत चलता है वह असुर है अर्थात वह प्रकृति के सामान्य अनुक्रम व्यवस्था में सहयोग नहीं कर रहा है !

खैर आज हम चर्चा करते हैं ! शासन के ईश्वरीय तंत्र की ! ईश्वर ने भी हमें शासन करने की कुछ विधायें और नियम बतलाये हैं ! जिससे हमारा ही नहीं प्रकृति का भी विकास होगा और यह जीवन शैली लोककल्याणकारी होने के साथ साथ विश्व बन्धुत्व को भी बढ़ायेगी ! यही तो “वसुधैव कुटुंबकम” का सिधान्त है ! जिसका एक मात्र उद्देश्य “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।“ अर्थात सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े !

जिसमें इस ईश्वरीय तंत्र के पांच महत्वपूर्ण नियम हैं !

पहला कभी भी अपने सुख और साम्राज्य विस्तार के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन मत करो !

दूसरा ईश्वर द्वारा निर्मित प्रत्येक जीव, वनस्पति और प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनो !

तीसरा समाज में सभी के साथ समभाव रखो !

चौथा सदैव बिना किसी लोभ और भय के अपने कर्तव्यों का पालन करो

और ईश्वर की सत्ता में विश्वास करो ! वह प्रत्येक को दंड और पुरस्कार अवश्य देता है !

लेकिन आज कृतिम ज्ञान के कारण धन और लालच के प्रभाव में विश्व की सभी सत्तायें ! इस ईश्वरीय तंत्र के विपरीत चल रही हैं ! उसी का परिणाम है कि आज विश्व का एक देश दूसरे देश को निगल जाने के लिये तैयार बैठा है ! अब तो स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि लोकतंत्र के नाम पर जो सशक्त सत्ताधीश कर रहे हैं ! वह संपूर्ण मानवता के लिये आज खतरा बन चुके हैं ! कोरोना और तृतीय विश्व युद्ध की तैयारी इसका स्पष्ट प्रमाण है ! अतः ऐसी स्थिति में विश्व की सर्वोत्तम शासन व्यवस्था कही जाने वाली पैशाचिक मानव की दुर्बुद्धि द्वारा निर्मित लोकतंत्र को भी समझना होगा !

लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार यह “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है” ! लेकिन अलग-अलग देशकाल और परिस्थितियों में अलग-अलग धारणाओं के प्रयोग से इसकी अवधारणा कुछ जटिल हो गयी है ! प्राचीनकाल से ही लोकतंत्र के सन्दर्भ में कई प्रस्ताव रखे गये हैं ! पर इनमें से कई तो कभी भी क्रियान्वित ही नहीं हुये हैं ! जैसे

1. लोकतंत्र का पुरातन उदारवादी सिद्धान्त
2. लोकतंत्र का अभिजनवादी सिद्धान्त
3. लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त
4. प्रतिभागी लोकतंत्र का सिद्धान्त
5. लोकतंत्र का मार्क्सवादी सिद्धान्त अथवा जनता का लोकतंत्र

लेकिन यह सभी व्यवस्था व्यर्थ हैं ! इसीलिये अलग-अलग समय समाज ने इन्हें अस्वीकार कर दिया ! अब प्रश्न यह है कि तो फिर देश की सत्ता चले कैसे ! तो अन्य शासन पध्यति पर भी विचार करना चाहिये ! जैसे

एकात्मक शासन प्रणाली
संघात्मक शासन प्रणाली
संसदात्मक शासन प्रणाली
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली आदि आदि

लेकिन यह सभी शासन प्रणाली भी लोकतंत्र का ही एक स्वरूप हैं ! जिन्हें नीचे वर्णित व्यवस्था ही संचालित करती है ! कहने को तो यह लोकतंत्र “जनता द्वारा, जनता के लिये, जनता का शासन है !” पर इस लोकतांत्रिक शासन की बागडोर वैश्विक शासन, कॉरपोरेट शासन, परियोजनाकार शासन, सूचना प्रौद्योगिकी शासन, सहभागितापूर्ण शासन, गैर-लाभकारी संगठन शासन और इस्लामी शासन व्यवस्थापकों के हांथ में होती है !

आज लोकतंत्र के आडम्बर पूर्ण प्रदर्शन के कारण सभी देशों की सत्तायें अब ईश्वरीय नहीं हैं ! यह मानव द्वारा रचित किसी न किसी वाद से चल रही हैं ! जैसे राजशाहीवाद, साम्यवाद, तानाशाहीवाद, सर्वसत्तावाद, अधिनायकवाद, अराजकतावाद, पूंजीवाद, ईसाई लोकतन्त्र, समूहवाद, सम्प्रदायवाद, साम्यवाद, समुदायवाद, रूढ़िवाद, संविधानवाद, वितरणवाद, पर्यावरणवाद, चरम पन्थ धर्मान्धवाद, फ़ासीवाद, नारीवाद, कट्टरवाद, विश्ववाद, हरित राजनीतिवाद, व्यक्तिवाद, उद्योगवाद, बुद्धिवाद, इस्लामवाद, उदारवाद, मुक्तिवाद, नरवाद, सैन्यवाद, राजतन्त्रवाद, राष्ट्रवाद, प्रगतिवाद, उग्रवाद, सुधारवाद, गणतन्त्रवाद, सामाजिक लोकतन्त्र समाजवाद, उपयोगितावाद आदि आदि ! पर यह सभी वाद आधारित लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था पूर्व में ही विफल घोषित हो चुकी हैं !

अब प्रशन यह है तो फिर शासन चले कैसे !

मेरे अनुसार राजा होने की पहली शर्त यही है कि वह अपनी जनता के लिये सहज उपलब्ध हो !
उसके बस पांच ही कर्तव्य हैं !

सामाजिक समानता स्थापित करना !

भष्टाचार नियंत्रित करना !

शीघ्र न्याय देना !

शासन इतना कठोर हो कि अपराध की इच्छा ही न हो !

निरंतर साम्राज्य का विस्तार करे !

इसके अलावा सभी कुछ आडम्बर और भ्रम है !

वर्तमान परिवेश में जिस किसी भी निर्वाचित शासक की शासन व्यवस्था में भी उक्त पांच गुण दिखाई देते हों ! वही शासन करने के योग्य है अन्यथा उसे दायित्व मुक्त कर देना चाहिये !

वैसे महाभारत युद्घ के समाप्त होने के बाद महाराज युधिष्ठिर को भीष्म ने राजधर्म का उपदेश दिया था !

युधिष्ठर को समझाते हुये भीष्म पितामह कहते हैं कि राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है ! वह गुण छत्तीस हैं ! राजा को चाहिये कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें !
यह गुण निम्नवत हैं –

1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परन्तु जीवन में कटुता न आने दें !
2. आस्तिक रहते हुए दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़ें !
3. क्रूरता का व्यवहार न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे !
4. मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे !
5. दीनता न दिखाते हुए ही प्रिय भाषण करे !
6. शूरवीर बने परंतु बढ़ चढ़कर बातें न करे ! इसका अर्थ है कि राजा को मितभाषी और शूरवीर होना चाहिए !
7. दानशील हो, परंतु यह ध्यान रखे कि दान अपात्रों को न मिले !
8. राजा साहसी हो, परंतु उसका साहस निष्ठुर न होने पाए !
9. दुष्ट लोगों के साथ कभी मेल-मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे !
10. बंधु बांधवों के साथ कभी लड़ाई झगड़ा न करे !
11. जो राजभक्त न हों ऐसे भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों से कभी भी गुप्तचरी का कार्य न कराये !
12. किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना ही अपना काम करता रहे !
13. दुष्टों को अपना अभीष्ट कार्य न कहें, अर्थात उन्हें अपनी गुप्त योजनाओं की जानकारी कभी न दें !
14. अपने गुणों का स्वयं ही बखान न करे !
15. श्रेष्ठ पुरूषों (किसानों) से उनका धन (भूमि) न छीने !
16. नीच पुरूषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न लें, अन्यथा देर सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है !
17. उचित जांच पड़ताल किये बिना (क्षणिक आवेश में आकर) किसी व्यक्ति को कभी भी दंडित न करे !
18. अपने लोगों से हुई अपनी गुप्त मंत्रणा को कभी भी प्रकट न करे !
19. लोभियों को धन न दे !
20 ! जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर कभी विश्वास न करें !
21. ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्री की सदा रक्षा करे !
22. राजा शुद्घ रहे, परन्तु किसी से घृणा न करे !
23. स्त्रियों का अधिक सेवन न करे ! आत्मसंयमी रहे !
24. शुद्घ और स्वादिष्ट भोजन करे, परन्तु अहितकर भोजन कभी न करे !
25. उद्दण्डता छोड़कर विनीत भाव से मानवीय पुरूषों का सदा सम्मान करे !
26. निष्कपट भाव से गुरूजनों की सेवा करे !
27. दम्भहीन होकर विद्वानों का सत्कार करे, अर्थात विद्वानों को अपने राज्य का गौरव माने !
28. ईमानदारी से (उत्कोचादि भ्रष्ट साधनों से नही) धन पाने की इच्छा करे !
29. हठ छोड़कर सदा ही प्रीति का पालन करे !
30. कार्यकुशल हो परंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो !
31. केवल पिण्ड छुड़ाने के लिए किसी को सांत्वना या भरोसा न दे ! अपितु दिये गये विश्वास पर खरा उतरने वाला हो !
32. किसी पर कृपा करते समय उस पर कोई आक्षेप न करे !
33. बिना जाने किसी पर कोई प्रहार न करे !
34. शत्रुओं को मारकर किसी प्रकार का शोक न करे !
35. बिना सोचे समझे अकस्मात किसी पर क्रोध न करे !
36. कोमल हो, परन्तु तुम अपकार करने वालों के लिए नहीं !

आगे 21वें अध्याय में भीष्म पितामह युधिष्ठर को यह भी बताते हैं कि तुम लोभी और मूर्ख मनुष्यों को काम और अर्थ के साधनों में मत लगाओ ! नहीं तो वह तुम्हें ही नहीं राष्ट्र को भी नष्ट कर देंगे !!

विचार कीजिये कि आज ऐसा हो रहा है !

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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