सृष्टि के प्रारंभ से ही मुट्ठी भर चालाक, धुरंधर, शैतान, लालची स्वभाव के लोग नाम, पैसे, पॉवर तथा अपनी दुकान चलाने के लिए समूची मानव जाति को गुमराह कर उसका शोषण करते आ रहे हैं ! मनुष्य जाति के शोषण का सबसे भयंकरतम माध्यम है धर्म ! सृष्टि ने हमें हिंदु, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध के रूप में नहीं बल्कि मनुष्य के रूप में जन्म दिया है ! लेकिन मानवता के दुश्मनों ने हिंदु, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि हजारों धर्मों की सृष्टि कर मानव जाति के टुकड़े-टुकड़े कर दिये हैं और आज समूची मानव जाति धर्म रूपी हैवानियत के शिकंजे में लहुलुहान हो रही है !
विचार तथा अनुभव में श्रेष्ठता और उदात्तता मानवमात्र के लिये होती है- उस पर सभी का अधिकार होता है और वह सार्वकालिक होती है ! समस्त ज्ञान, विज्ञान, कला और संस्कृति संपूर्ण मानवता की विरासत है ! उस पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं ! ऐसा संभव है कि किसी विचार की उत्पति किसी विशेष क्षेत्र में किसी वर्ग विशेष से हुई हो, परंतु एक बार उस विचार का जन्म हो जाने के उपरांत कोई भी मनुष्य चाहे तो उस विचार को अपना ले !
विश्व का पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण तथा अक्षांश और देशांतर के आधार पर भौगोलिक विखण्डन बिल्कुल निराधार है ! संप्रदाय विशेष, समुदाय विशेष और जाति विशेष के नाम पर विचारों, आदशों आदि की स्थापना करना समुदाय की संकीर्ण भावना का सूचक है !
मानव-मानव में भेद करना ठीक नहीं ! प्रकृति ने प्रत्येक मानव को समान आकार-प्रकार और मस्तिष्क दिए हैं ! वह चाहे जिस तरह उसका उपभोग कर ले ! किसी भी तरह को विशेष उपलब्धि चाहे वह किसी व्यक्ति विशेष की हो, समाज विशेष को हो अथवा राष्ट्र विशेष की, संपूर्ण मानव समुदाय की होती है ! यथा, किसी राष्ट्र विशेष ने किसी महापुरुष को जन्म दिया ! उस महापुरुष ने अच्छे कर्म किए और अपने सत्कर्मों से कुछ आदर्श स्थापित किए ! अब उनका आदर्श किसी ‘राष्ट्र’ विशेष के लिये नहीं, संपूर्ण मानवता के लिये है !
मनुष्य जब जन्म ग्रहण करता है, तब उसके सामने दो चीजें स्वत: प्रकट हो जाती हैं-विशाल विश्व और उसका मृत्युपर्यंत जीवन: विश्व अध्ययन रक्त है और जीवन ग्रंथ ! जिस मनुष्य ने अपने जन्म से जपने जीवन के ग्रंथ को पढ़ना शुरू कर दिया, वह सदैव प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा, क्योकिं, उसे जब किसी एक बात का ज्ञान होगा, तब दूसरी बात को जानने की कोशिश करेगा ! मानव विकास इसलिये करता है कि उसे पूर्णता को प्रांप्ति हो सके ! उसके जन्म लेने का कोई अर्थ निकल सके ! विकास के लिये समन्वय भाव का होना परमावश्यक है !
यदि हम विभिन्न विचारधाराओं और उनके संस्थापकों को पूरी तरह से अस्वीकृत कर दें अथवा अस्वीकृति प्रदान कर और कुछ ग्रहण ही न करें तो विकास संभव नहीं हो सकता ! मनुष्य की प्रवृत्ति होनी चाहिए समन्वय की भावना से युक्त होकर सभी ओर से अच्छाइयों को ग्रहण करने एवं बुराइयों को दूर करने की ! किसी धर्म विशेष, संप्रदाय विशेष या वाद विशेष से बंधकर मनुष्य कदापि प्रगति नहीं कर सकता !
जब मनुष्य में मनुष्यता आएगी- वह एक-दूसरों से ईष्यों और द्वेष करना छोड़ देगा, तभी जातीयता, साम्प्रदायिकता, प्रांतीयता, अंध-राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता की स्थापित मान्यताओं को समाप्त किया जा सकेगा ! वर्तमान में मनुष्य और मनुष्य के बीच दूरी बढ़ती जा रहीँ है ! देश, धर्मं और जाति की कलुषित मानसिकता ने उसे इस प्रकार जकड़ लिया है कि वह यह सोचना ही भूल गया है कि इन सब बंधनों से पूर्व हम सभी मानव हैं- समान हैं और प्रकृत्या हमारे लक्ष्य एक हैं ! धर्म, सत्ता, अर्थ और संस्कृति की अंधानुकृति के कारण मानवता का लोप होता जा रहा है- मानव ही मानव के लिये घातक बनता जा रहा है !
आज एक धर्मं को मानने वाले-दूसरे धर्म के मानने बातों को, स्वदेशी-विदेशी को, अमीर-गरीब को और बलवान-निर्बल को दबाने में लगे हैं ! वे यह बात शायद भभूल गए हैं कि प्रकृत्या हर मनुष्य की इच्छा होती है और किसी की इच्छा का दमन नहीं करना चाहिए ! वह यह भूल जाता है कि उनमें भी स्वाभिमान है और उनमें भी जीवन को सुखपूर्वक जीने की लालसा है ! जब किसी मनुष्य को लगातार दबाया जाता है, तब उसमें हीन भावनाएं पनपने लगती है और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये वह हिंसात्मक प्रवृत्ति को भी अपना लेता है !
संपूर्ण विश्व में व्याप्त आतंकवाद और उग्रवाद इसी उपेक्षा का पपरिणाम है ! मनुष्य ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ऐसे-ऐसे हथकण्डे अपना लिये हैं, जो मानवता का अस्तित्व ही समाप्त का सकते हैं ! इन सब प्रवृत्तियों का दमन सभ्य एवं शिष्ट मानव बनकर ही किया जा सकता है ! यह आदर्श स्थिति है और धीरे-घीरे ही उसकी उपलब्धि संभव है ! दया मानवता सार है और दया के बिना सत्य भी नहीं है और दया-सहित असत्य को भी व्यवहारिक सत्य कहा जाता है ! दया का धर्म मानव धर्म है !
संपूर्ण विश्व में आज एक अधिकार की मांग सर्वोपरि है और वह है मानवाधिकार ! यह कितनी चिंता की बात है कि मानवाधिकार की बात चल रही है- यह मानवता के नाम पर कलंक नहीं है ! जब सभी धर्म और दर्शन तथा सभी वाद और विज्ञान यह कहते हैं कि सभी मनुष्य समान हैं, तब उनमें भेद करना उचित नहीं ! मनुष्य को चाहिए कि वे एक-दूसरे से अपने विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करें तथा एक-दूसरे के विकास में भागीदार बने !
जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को मनुष्य समझने लगेगा और उनमें सहयोग की भावना अपना आधार बना लेगी, तब संपूर्ण विश्व शांति और अहिंसा के मार्ग पर चलकर पूर्ण विकास कर सकेगा ! मनुष्य को अपना धर्म ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को समझना चाहिए ! सत्कर्म और परहित मनुष्य मात्र का परम धर्म है !