महाभारत की कथा में दुर्योधन एक खलनायक है ! लेकिन क्या आपको पता है कि दुर्योधन बहुत बड़ा शिव भक्त था और वह पूरे कुरु साम्राज्य में शैव जीवन शैली की पुनः स्थापना करना चाहता था ! जिस शुभ कार्य में उसके सहायक गांधार (आधुनिक अफ़गानिस्तान) के महाराजा परम शैव भक्त शकुनि थे !
आज भी देश में कुछ जगहें हैं ! जहां इस बात के प्रमाण मिलते हैं और दुर्योधन के मंदिर भी मिलते हैं ! जहाँ उसे उसके इस शुभ प्रयास के लिये आज भी पूजा जाता हैं !
हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र के जौनसार-बावर अंचल के ओसला गांव में आज भी दुर्योधन का बनवाया हुआ वह भगवान शिव का शैव मंदिर है ! जहाँ पर दुर्योधन की रथ यात्रा भी निकाली जाती है ! जिसमें कि पूस माह की पांचवीं तारीख से दुर्योधन की मूर्ति रख कर एक रंगारंग शोभायात्रा के जरिये मोरी तालुका के फितारी गांव पहुंचायी जाती है ! इस यात्रा की अगुवाई करते हैं जौनसार-बावर क्षेत्र के कई समुदायों के मुखिया और ओसला मंदिर के मुख्य पुजारी करते हैं ! वहां से कोटगांव, दतमिर होते हुये यह यात्रा 20 दिन बाद फिर दुर्योधन की मूर्ति के साथ ओसला मंदिर में लौट आती है ! वहां के निवासी आज भी दुर्योधन को ही अपना राजा मानते हैं !
कुरुक्षेत्र के युद्ध में दुर्योधन के मारे जाने के बाद इस गांव के लोग इतने दुखी हुये कि वह लोग कई दिनों तक रोते रहे ! हजारों लोगों ने निकट बह रही तमसा नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली ! जिसे आज “टोन्स नदी” के नाम से जाना जाता है ! इसीलिये इसके जल से कोई पवित्र काम नहीं किया जाता है ! क्योंकि इसे लोग दुख की नदी कहते हैं ! मंदिर के बगल में लोहे का एक कोठार है, जिसे गांव वाले दुर्योधन का कोठार मानते हैं !
दुर्योधन का एक मंदिर दक्षिण भारत में भी है ! केरल के कोल्लम जिले में ! यहां के ‘पोरुवाजी पेरुविरुति मालानाडा’ मंदिर में आज भी दुर्योधन को भगवान के रूप में पूजा जाता है ! इस मंदिर के पीछे एक दिल छू लेने वाली कहानी है !
कहते हैं कि पांडव जब अज्ञातवास में थे तो उनकी खोज में भटकते-भटकते दुर्योधन इस गांव में पहुंच गया ! प्रचंड गर्मी और रास्ते की थकान से पस्त दुर्योधन को देखकर काडुथासेरी समुदाय के एक बुजुर्ग को उस पर दया आ गई !
उन्होंने उसके लिए भोजन-पानी की व्यवस्था की ! इससे खुश होकर दुर्योधन ने उस बुजुर्ग को गले लगाना चाहा तो वह पीछे हट गये ! दुर्योधन ने कारण पूछा, तो उन्होंने कहा- हम नीची जाति के हैं और हम एक क्षत्रिय के गले नहीं लग सकते ! दुर्योधन ने जिस तरह कभी सूतपुत्र कर्ण को गले लगाकर उनका परिचय अपने मित्र के रूप में दिया था, उसी तरह उन्होंने उस बुजुर्ग को भी गले लगा लिया ! कहा- जरूरत के वक्त जो भोजन-पानी दे, उसका दर्जा सबसे ऊपर है ! लौटते समय दुर्योधन ने वादा किया कि कुरुक्षेत्र के युद्ध में सफल होने पर वह दोबारा लौटेगा और उनसे मुलाकात करेगा !
लेकिन कुरुक्षेत्र के युद्ध में 39 लाख 40 हजार योद्धा मारे गये ! जिसमें कृष्ण के छल के कारण कौरव पराजित हुये ! इस युद्ध में दुर्योधन भी मारा गया और वह फिर कभी दोबारा मिलने नहीं आ सका ! लेकिन दुर्योधन की आत्मा उसकी बात का मान रखने के लिए वहां पहुंची ! उसी रात उस बुजुर्ग ने सपने में दुर्योधन को देखा !
अगली सुबह उसे अपने घर के सामने बरगद का एक पौधा रखा मिला ! बुजुर्ग ने उस पौधे को रोप दिया और वहीं पर पूजा की एक वेदी बनाई ! उसके बाद से दुर्योधन की पूजा शुरू हो गई ! माना जाता है कि उसी बरगद के वृक्ष में आज भी शैव भक्त दुर्योधन की आत्मा सूक्ष्म रूप में रहती है ! और सभी शैव भक्तों की मनोकामना पूरी करती है !
आज उस वेदी की जगह एक विशाल मंदिर खड़ा है ! यह मंदिर वैष्णव जात-पात, छूत-अछूत की भावना से कोसों दूर है ! कई धर्मों के लोग यहां प्रार्थना करने आते हैं ! इस मंदिर के पुजारी भी ब्राह्मण नहीं हैं ! उसी बुजुर्ग के परिवार से ही आज भी पुजारी चुने जाते हैं !
किंतु इन सत्य घटनाओं का वर्णन वैष्णव धर्म ग्रंथों में नहीं मिलता है ! क्योंकि यह सब शैव जीवन शैली के प्रचारक तथा भगवान शिव के शिष्य थे ! इसीलिये वैष्णव लेखकों ने इनके महत्व को अपने धर्म ग्रंथों में वर्णित नहीं किया ! जो कि वैष्णव लेखकों द्वारा इतिहास के साथ एक बहुत बड़ा धोखा है !
अतः हम सभी निष्पक्ष विचारकों का यह कर्तव्य बन जाता है कि हम वैष्णव लेखकों द्वारा जो धर्म ग्रंथों में धोखाधड़ी की गई है ! उसे आम जनमानस के सामने प्रस्तुत करें ! जिससे शैवों के संघर्ष गाथा की भी समाज को जानकारी मिल सके !!