प्राय: भगवान श्रीराम पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने मात्र एक धोबी के कहने पर अपनी पत्नी श्रीमती सीता मैया का गर्भाकाल में परित्याग कर दिया था ! किंतु मैं आप सभी को यह बताना चाहता हूं कि बौद्ध रामायण और जैन रामायण के धर्म आचार्यों द्वारा लिखी गई रामायण में इस तरह के किसी भी दृष्टांत का वर्णन नहीं मिलता है !
यह आडम्बर गोस्वामी तुलसीदास के राम लीला की लोकप्रियता को देखते हुये ! भगवान राम के प्रभाव को कम करने के लिये मुग़ल शासकों के इशारे पर 16वी सदी की रचना में जोड़ा गया था ! क्योंकि यह वह दौर था जब मुग़ल शासक भारत में हावी थे और शरियत कानून के तहत स्त्री पर तरह तरह की पाबंदी थी और उन पर शक किया जाता था ! जबकि रामराज्य ऐसा नही था ! देवी सीता ने स्वयं भौतिक सुखों का त्याग करके वैराग्य का मार्ग चुना था और निर्वाण अवस्था को प्राप्त किया ! यह मत भूलिये आखिर कार वह विदेही राजा जनक की बेटी थी !
अर्थात यह सत्य है कि माता सीता ने गर्भावस्था में अयोध्या को त्याग कर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आ गई थी ! लेकिन यह एक धोबी के आरोप लगाने पर भगवान श्री राम द्वारा सीता को त्याग दिये जाने के कारण कहना न्यायोचित नहीं मालूम पड़ता है ! इसलिये इस विषय पर मैंने कुछ खोजबीन शुरू की !
जैसा कि मैं समझ पाया कि हम सभी जानते हैं कि भगवान श्रीराम से अयोध्यावासी तड़का वध के कारण अथाह प्रेम करते थे और उस स्थिति में जब भगवान श्री राम को वनवास हुआ और उनके साथ लक्ष्मण और माता सीता भी वनवास में चली गई ! इसी बीच राजा दशरथ का देहांत हो गया !
तदुपरांत राजा दशरथ की अंत्येष्टि क्रिया करने के बाद जब भारत अयोध्या निवासियों के साथ राम को लेने के लिये चित्रकूट गये और राम ने साथ आने से इनकार कर दिया ! तब भरत ने भी यह निर्णय लिया कि वह भगवान श्री राम की गैरमौजूदगी में राज सिंहासन पर नहीं बैठेंगे और उन्होंने भगवान श्री राम द्वारा दी गई खड़ाऊ को राज सिंहासन पर रखकर स्वयं नंदीग्राम में एकांतवास में चले गये !
उसी दौरान शत्रुघ्न ने भी समस्त ऐश्वर्य को त्याग कर अयोध्या राज महल के बाहर चबूतरे पर ही 14 वर्ष तक स्थाई रूप से रहने का निर्णय लिया !
जिससे अयोध्या की समस्त जनता आंदोलित हो उठी और जनसामान्य ने यह निर्णय लिया कि जब हमारे राजा के 4 पुत्र ने समस्त सांसारिक ऐश्वर्य को त्याग दिया है तो हम भी भगवान श्री राम के वापस आने तक अपने समस्त ऐश्वर्य को त्याग देंगे !
अतः समाज के आम आवाम ने अपने समस्त सुखों को त्याग कर वैराग्य का जीवन जीने का निर्णय लिया ! जिससे पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था ठप हो गई ! नव संतानों के जन्म न लेने के कारण गुरुकुल बंद हो गये, कृषि कार्य रोक दिये गये और वैराग्य के कारण नव दंपतियों ने गर्भधारण करना बंद कर दिया !
उसका परिणाम यह हुआ कि समाज में समाज को व्यवस्थित तरीके से चलाने वाले सामाजिक प्रतिष्ठान धीरे-धीरे बंद होने लगे ! चिकित्सालय, गुरुकुल, प्रसव केंद्र, व्यवसायिक प्रतिष्ठान, सैन्य संस्थान आदि सभी कुछ बंद हो गये !
और जब रावण पर विजय के उपरांत वापस राम अयोध्या आये ! तब उन्होंने लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के सहयोग से पुनः अयोध्या की सामाजिक व्यवस्था को जागृत किया ! उस समय राम की आयु लगभग 40 वर्ष हो चुकी थी ! सीता जो उनसे उम्र में मात्र 6 वर्ष छोटी थी ! उनकी आयु भी 34 वर्ष हो चुकी थी !
ऐसी स्थिति में वंश क्रम को आगे चलाने के लिये शीघ्र अति शीघ्र संतान को प्राप्त करना आवश्यक था ! क्योंकि अयोध्या की सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी थी ! ऐसी स्थिति में जुड़वा बच्चों के प्रसव के लिये अयोध्या के निकट ही तमस नदी के किनारे महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में प्रसव हेतु सीता का भेजा जाना अनिवार्य हो गया था !
क्योंकि महर्षि बाल्मीकि भील जाति के वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे ! अतः भील जाति की महिलाओं के प्रसव एवं उनके बच्चों की शिक्षा के लिये उन्होंने उस समय एक उन्नत किस्म का चिकित्सालय एवं गुरुकुल संचालित कर रखा था ! ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि माता सीता को जुड़वा बच्चों प्रसव हेतु किसी समुचित प्रसव चिकित्सालय पर भेज दिया जाये !
अतः माता सीता को महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में सुरक्षित प्रसव हेतु एवं राजकुमारों की शिक्षा हेतु भेजा गया था ! जहां पर उन्होंने लव और कुश का जन्म दिया तथा यह बहुत कम लोग जानते हैं कि माता सीता के प्रसव के समय महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में भरत व्यक्तिगत रूप से उपस्थित थे ! जिससे किसी तरह की कोई यदि विशेष आवश्यकता पड़ती है तो उसका राज्य सत्ता द्वारा तत्काल इंतजाम किया जा सके ! कहा जाता है श्री राम भी लव कुश के जन्म के उपरांत संतान दर्शन हेतु महर्षि वाल्मीकि के आश्रम गये थे !
इसके उपरांत क्योंकि बच्चे जुड़वा थे तो उनकी देखरेख और शिक्षा हेतु माता सीता ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ही स्थाई रूप से रहने का निर्णय लिया ! जिससे उनकी आने वाली संतान भी ऋषि मुनि के बीच स्वच्छंद वातावरण में पले बढ़े ! यह माता सीता की इच्छा थी ! इसलिये उन्होंने स्वेच्छा से पुत्रो की शिक्षा होने तक अयोध्या का त्याग किया था !
जैन रामायण में ऐसे कई वाकये मिलते है जब रघुकुल के सदस्य उनसे मिलने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम आते जाते रहते थे !
राम कथा के अंतिम दौर में जो यह दृष्टांत आता है कि अश्वमेघ यज्ञ में माता सीता के स्थान पर सोने की मूर्ति रख कर यज्ञ हुआ था तथा माता सीता ने भू समाधि ले ली थी उस विषय पर मैं अपने विचार अगले लेख में प्रस्तुत करूंगा !