भारतीय शिक्षा नीति का नाम लेते ही लोग राजीव दीक्षित के प्रभावों में मैकाले को गाली देना शुरू कर देते हैं ! किंतु गाली देने वालों में से कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने कभी भी भारत के शिक्षा नीतियों के क्रमिक विकास का अध्ययन किया हो !
हम भारतीयों की यह प्रवृत्ति है कि वह दूसरे का ज्ञान तुरंत ढ़ोना शुरू कर देते हैं ! भले ही वह वक्ता लोक लुभावना वक्तव्य बनाने के चक्कर में गलत ही क्यों न बोल रहा हो !
इसलिए मुझे बाध्य होकर आज इस विषय पर भी लेखन करना पड़ रहा है ! जिससे स्पष्ट हो सके कि भारत के शिक्षा जगत का सर्वनाश किसी मैकाले ने नहीं बल्कि स्वयं भारतीयों ने ही किया था ! जो उस समय के संस्कारित गुरुकुलों से पढ़े-लिखे थे !
क्योंकि तब भारत में कोई ईसाई शिक्षा पद्धति लागू ही नहीं थी !
किसी भी सभ्यता का इतिहास उस समाज की शिक्षा का इतिहास भी होता है क्योंकि सभ्यता के लिए आवश्यक पुरुषार्थ अपने ज्ञान परंपरा के संदर्भ में ही संभव होते हैं और किस समाज ने ज्ञान के किन-किन रूपों की साधना की है और कितना और कैसा ज्ञान अर्जित किया है , इससे ही उसमें किए गए और चल रहे पुरुषार्थों का स्वरूप निर्धारित होता है !
आज यह विश्व विदित सत्य है कि प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का प्रचार था , वह अपने समय के विश्व की अन्य शिक्षा व्यवस्थाओं की तुलना में सर्वाधिक श्रेष्ठ और समुन्नत थी !
जब कुछ अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में भारत आए और यहां के समाज में कुछ प्रतिष्ठा पाने का प्रयास करने लगे तो उन्होंने पाया कि इस समाज में शिक्षा का बहुत अधिक आदर है इसलिए उन्हें लगा कि हम भी यहां के लोगों को शिक्षा में रुचि लेते हुए दिखे तो शायद इससे हमारा कुछ सम्मान बढ़ेगा और तब हमें अपना व्यापार फैलाने में सहायता मिलेगी इसके लिए उन्होंने कोलकाता और काशी मे विद्यालय स्थापित किए ! यद्यपि उन्हे एक आशा यह थी कि शायद इन विद्यालयों द्वारा छद्म रूप से ईसाइयत के प्रसार मे भी सहायता मिलेगी !
1780 ईस्वी मे कोलकाता मे एक मदरसा बनाया ताकि उस इलाके के नवाब प्रसन्न हों और 1791 ईस्वी मे काशी मे संस्कृत विद्यालय बनाया ताकि काशी , दरभंगा , हथुआ, जगदीशपुर , बेतिया , टेकरी , बनैली , आदि के राजा गण प्रसन्न हों और शायद वे अपने बच्चों को भी यहाँ पढ़ाने लगें ! यह अलग बात है कि दरभंगा नरेश ने स्वयं एक विशाल संस्कृत विद्यालय की स्थापना की , जो बाद मे विश्व विद्यालय ही बना !
इंग्लैंड मे यह वह दौर था जब वहाँ भारत की लूट से पहली बार धन पहुँचना शुरू हुआ जो भारतीय व्यापारियों के लिए तो नगण्य धन था पर कंगाल और भूखे इंग्लैंड के लिए वह मानो स्वर्ग का खजाना खुल गया था ! भारत के सुंदर मुलायम सूती और रेशमी वस्त्र इंग्लैंड और यूरोप के धनियों के लिए मानो देवलोक की वस्तुएं थे ! उधर सामान्य अंग्रेज़ भूख और अभाव से बिलबिलाता था और सस्ती जिन पीकर हजारों गरीब अंग्रेज़ दम तोड़ रहे थे !
इधर समुद्र मे अपनी अपनी नौकाएँ लिए इंग्लैंड , फ़्रांस और स्पेन के डकैत और लुटेरे (जो बाद मे व्यापारी कहे जाने लगे ताकि उनके पाप छिपाए जा सकें) आपस मे एक दूसरे को मार और लूट रहे थे और इंग्लैंड मे शिक्षा केवल पादरियों और राजकुमारों तक सीमित थी ! इसीलिए कंपनी ने यहाँ भी राज घरानों को ही खुश करने पर ध्यान दिया !लेकिन जब इसमे सफल नहीं हुये तो अपना स्वतंत्र प्रयास शुरू किया !
इस बीच इंग्लैंड से पादरी विलियम कैरी भारत आया ! इसने इंग्लैंड में रहकर एक पुस्तक लिखी थी:” हिंदुओं तथा अन्य विधर्मियों को ईसाई बनाने की विधि “!
उसने बंगाल में कोलकाता के आस पास आकर लोगों को ईसाई बनाने का अभियान छेड़ा !
कुछ समय बाद ही उसकी भेंट बनिए का यानी साहूकारी का काम कर रहे युवक राम मोहन राय से हुई जो थोड़ी अरबी फारसी पढ़ा था और साहूकारी का धंधा कोलकाता में कर रहा था तथा विशेषकर कंपनी के लोगों को ब्याज पर रकम उधार देता था और अपना गुजारा ब्याज की रकम से चलाता था ! इस तरह वह कंपनी के लोगों से काफी घुल मिल गया था ॥ उसने कैरी को बताया कि मैंने 9 साल की उम्र में ही अरबी और फारसी पढ़ी है और संस्कृत भी जानता हूं क्योंकि मैं एक बार बनारस भी घूम आया हूँ ! पादरी विलियम कैरी को यह व्यक्ति बिल्कुल उपयुक्त लगा और उसने उसे ईस्ट इंडिया कंपनी मेंउसे कुछ काम दिलाने का वचन दिया ! कैरी की सिफ़ारिश पर मुशीराबाद में कंपनी की अदालत में मुंशी का काम राममोहन राय करने लगा ! जिस से कुछ कमाई अधिक होने लगी ! पिता आर्थिक कष्ट मे थे सो उन्हे भी भेजने को कुछ बचत होने लगी !
पादरी कैरी और राममोहन राय ने मिलकर एक जालसाजी से भरा ग्रंथ लिखा : ” महानिर्वाण तंत्र ” और यह बताया कि “महानिर्वाण तंत्र” भारतीय दर्शन का बहुत बड़ा ग्रंथ है जो कि ईसाइयत के सिद्धांतों को ही संस्कृत में प्रस्तुत करता है और परमेश्वर के विषय में ईसाइयों की जो मान्यता है, ठीक वही मान्यता महानिर्वाण तंत्र मे भी ईश्वर की है !
इस समय तक राम मोहन राय अंग्रेजी नहीं जानता था और संस्कृत केवल कामचलाऊ जानता था! उसने केवल मुंशीगिरी के लिए आवश्यक अरबी और फारसी ही सीखी थी इसलिए उसकी बातों को पादरी विलियम कैरी लिखता गया और यह पुस्तक रची गयी ! अपनी जालसाज़ी छिपने के लिए कैरी ने मुंशी राममोहन को अरबी और संस्कृत दोनों का पंडित प्रचारित किया ! राम मोहन भी इस जालसाज़ी मे पूरी तरह खुश था !
कंपनी का अनुबंधित अस्थायी मुलाजिम रहते हुए राममोहन राय ने एक अभियान छेड़ दिया कि बंगाल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो ! इसके साथ ही उसने यह अभियान भी चलाया कि अंग्रेज लोग बंगाल में ज्यादा से ज्यादा संख्या में आकर बसें ! उसके लिए भारतीयों के समक्ष यह तर्क रखा कि देखो , यह लोग हमारा धन इंग्लैंड ले जाते हैं ,अगर यही रहेंगे तो हमारा धन यही रहेगा और वे यहीं पर व्यापार करेंगे !
राममोहन की मदद से कंपनी ने एक एंग्लो संस्कृत स्कूल कोलकाता मे खोला , बाद मे उसे ही वेदान्त महाविद्यालय का नाम दिया जबकि वहाँ ईसाई सिद्धान्त ही वेदान्त कहकर पढ़ाये जाते थे !
राममोहन राय फारसी के जानकार होने के कारण और कंपनी की प्रेरणा से तथा पादरी विलियम कैरी की प्रेरणा से अकबर शाह द्वितीय नामक जो मुगल खानदान का वंशज दिल्ली में बचा था , उसके संपर्क में आया और उनका एक पत्र लेकर लंदन जाने का वादा किया ! अकबर शाह द्वितीय अपनी पेन्सन बढ़ाने की अर्जी भेजना चाहता था !
राम मोहन ने अकबर शाह द्वितीय को समझाया कि इंग्लैंड में लोग तभी मेरी इज्जत करेंगे ,जब आप मुझे भी एक राजा की उपाधि देकर भेजें !
तब 1830 ईसवी में पहली बार अकबर शाह द्वितीय ने उसे कागज में राजा लिख दिया तथा अपना संदेश और अपनी विनती लिखकर लंदन मे भारत सचिव को देने के लिए राम मोहन राय को लंदन भेजा ! इस बीच राममोहन राय ने ईसाई बपतिस्मा ले लिया था और भारत तथा लंदन आता जाता रहा ! इस प्रकार जीवन के अंतिम 3 वर्ष मे वह कागज पर राजा कहलाता रहा ! जबकि आजीवन वह एक कंपनी के अधीन एक अनुबंधित अस्थायी मुंशी था !
अंत में 3 वर्षों बाद वह लंदन में मरा और ईसाई पद्धति से दफनाया गया ! कुछ समय बाद, जिस ईसाई कब्रिस्तान में उसे दफनाया गया था, वहां के लोगों ने उसे इसके लायक नहीं माना और 9 साल बाद उसे उस कब्र से निकाल कर ब्रिस्टल मे एक दूसरे कब्रिस्तान की कब्र में फिर से 7 फुट गहरे गड्ढे में दफनाया गया !
उस कब्रिस्तान के पादरी लोग प्रतिवर्ष 27 सितंबर को राम मोहन राय की स्मृति में प्रार्थना करने उस कब्र पर इकट्ठा होते हैं और नेहरू जी की प्रेरणा से तथा कांग्रेस शासन की योजना से भारतीय राजदूत वहां 1947 ईस्वी के बाद भी प्रतिवर्ष ईसाई कब्रिस्तान में पहुंचकर” मृतक राम मोहन राय को ईसाई गॉड सद्गति दें” , इस प्रार्थना की सभा में शामिल होते हैं ! कांग्रेसी लेखक उन्हे राजा राम मोहन राय लिखते हैं !
राम मोहन राय की प्रेरणा से ईसाई पादरियों ने कोलकाता के आसपास लगभग आधे बंगाल में यह वातावरण बना दिया था कि भारत में अंग्रेज बस जाएं , यह भारत के राजा और नवाब लोग चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने राम मोहन राय को बहुत बड़ा पंडित और सम्पन्न व्यक्ति, दोनों बताया जबकि राम मोहन राय आजीवन अपने पिता की गरीबी से दुखी रहा करते और उन्हें कुछ आर्थिक मदद करने के लिए मुंशीगिरी करते रहे ! राममोहन राय ने यह अभियान छेड़ा कि भारत में अंग्रेजी माध्यम से ही शिक्षा हो, यह आवश्यक है !
इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी का महा प्रबंधक बनकर विलियम बेंटिक नामक एक महा बदमाश आया जिसकी जालसाजी की चर्चा स्वयं इंग्लैंड की संसद में बाद में हुई थी ! उसने राम मोहन की तथा कुछ अन्य बाँगालियों की मदद से, विशेषकर प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज की मदद से , यह झूठी अफवाह फैलाई और लंदन में यह रिपोर्ट बारंबार फैलाई कि भारत में हर विधवा स्त्री को जबरन सती कहकर जला दिया जाता है और यहां बाल विवाह की कुप्रथा मौजूद है ! ताकि इंग्लैंड के सम्पन्न लोगों को लगे कि कंपनी भारत में जो कर रही है, वह अच्छा ही है!
ऐसा वातावरण बन जाने के बाद कंपनी का एक सलाहकार बन कर थॉमस बेबिंगटन मैकाले नामक व्यक्ति आया ! इसके विषय मे भी भारत मे भारी झूठ फैलाया गया है !
थॉमस बेबिंगटन मैकाले इंग्लैंड के लिसिस्टरशायर कस्बे में 1800 ईस्वी में पैदा हुआ था और उसने कस्बे के एक चर्च में ईसाई कानून की शिक्षा प्राप्त की! कंपनी का कर्मचारी बन कर वह 1834 ईस्वी में भारत आया ! उसे यह जिम्मा दिया गया कि क्योंकि तुम ईसाई कानून के जानकार हो इसलिए हम जो जाली और फर्जी कोर्ट यहाँ चलाते हैं, उसमें कानूनी निर्णय के नाम पर की जा रही जालसाजी में हमारी मदद करो !
कंपनी भारत में जो कोर्ट चलाती थी वह पूरी तरह जालसाजी और धोखाधड़ी थी और उसका न तो भारत के किसी विधि परंपरा से कोई संबंध था और ना ही स्वयं इंग्लैंड के किसी कानून के अनुसार वह कोर्ट चल रही थी ! वह पूरी तरह जालसाजी थी! यह बात लंदन में वहां की संसद में वहां के अनेक माननीय सांसदों ने स्वयं प्रमाण सहित कही थी, जिसके अभिलेख विद्यमान है !
भारत के बहुत से पढे लिखे लोगों मे इतनी अधिक अंग्रेज़ भक्ति है कि श्रद्धा के अतिरेक मे वे अंग्रेजों की हर बात को अधिकृत मानते हैं , उन्हे भी जिनहे स्वयम अंग्रेज़ लोग अधिकृत नहीं मानते !
इंग्लैंड मे व्यापारियों को अपना प्रधान वहाँ के क्राउन को दिखाना पड़ता था परंतु कंपनी पूरी तरह निजी होती थी ! केवल कमीशन शासन मे जमा करना होता था !
1834 ईस्वी मे कंपनी का भारत मे यानी मुख्यतः बंगाल मे महा प्रबन्धक था बेंटिक! उसके अधीन विधि सलाहकार बनकर आया थॉमस बेबिंगटन मेकाले उसे बेंटिक ने शिक्षा के कंपनी बजट के सही उपयोग के लिए सुझाव देने कहा था !
जाहीर है , उस से यह अपेक्षा बेंटिक की थी कि वह उसकी इच्छा के अनुरूप सुझाव दे सो उसने दे दिया ! भारत मे मूढ़ या दास बुद्धि लोग उसे लॉर्ड मेकाले के प्रसिद्ध नोट के रूप मे याद करते हैं जिसे पढ़ सुनकर अंग्रेज़ लोग खूब हँसते हैं !
केवल महा मूर्ख ही यह समझते हैं कि भारत की वर्तमान शिक्षा मेकाले के बताए रास्ते पर चल रही है ! सचाई बिलकुल अलग है जिसकी हम यहाँ चर्चा करेंगे !
सत्य यह है कि मेकाले को लॉर्ड बने गया 1857 ईस्वी मे यद्यपि वह एक भी दिन हाउस ऑफ लॉर्डस की किसी मीटिंग मे भाग नहीं लिया !
जिन दिनों फरवरी 1835 मे उसमे अपना प्रसिद्ध किया गया नोट लिखा, उन दिनों वह एक कंपनी ( जो भारत के टाटा या अंबानी की आज की कंपनी से बहुत छोटी हैसियत की थी ) के महाप्रबंधक का एक अधीनस्थ कर्मचारी मात्र था जिसने मालिक को खुश करने वाला नोट लिखा ! उसने लिखा : –
“मैं न तो संस्कृत जानता , न ही अरबी ! पर हमारे परिचय मे जो इन भाषाओं के अध्येता हैं, उनसे चर्चा कर मैं इस निष्कर्ष पर आया हूँ कि भारत का समस्त संस्कृत साहित्य और अरब का समस्त अरबी साहित्य ( यहाँ वह मूर्ख फारसी के साहित्य को ही अरबी कह रहा है ) मिलाकर भी किसी भी एक अच्छी यूरोपीय लाइब्ररी के एक शेल्फ मे रखी किताबों के सामने गुणवत्ता मे हल्का बैठेगा ! संस्कृत मे काव्य ही सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है पर अङ्ग्रेज़ी और अन्य युरपीय भाषा के बड़े कवियों के सामने वह बहुत हल्का है ! ऐसा सब परिचित विद्वानों का मत है ! सभी लौकिक और नैतिक विषयों मे यूरोपीय साहित्य इनसे बहुत उच्च कोटि का है ! ”
अब यह वस्तुतः एक बाबू का नोट है जैसा आए दिन हर भारतीय मंत्री के समक्ष अधीनस्थ बाबू के नोट आते रहते हैं ! उन पर “एक्शन ” क्या लेना है , यह मंत्री जी को ज्ञात रहता है ! बेंटिक को भी ज्ञात था क्योंकि यह लिखा ही उसके संकेत पर गया था सो बेंटिक ने तदनुसार कंपनी के विद्यालयों मे छठी कक्षा से अङ्ग्रेज़ी की पढ़ाई अनिवारी कर दी !
और 1813 ईस्वी मे जो थोड़ा सा बजट शिक्षा के लिए लोगों के दबाव मे रखा था , वह इस प्रकार बेंटिक की इच्छा अनुसार अङ्ग्रेज़ी की शिक्षा मे ही व्यय किया जाने लगा ! मेकाले ने इस शिक्षा के क्या गुण बताए थे , उसकी अतिरंजित चर्चा से सत्य छिपा दबा रह जाता है !
यह नीति अनेक समान संस्तुतियों के साथ कंपनी 1857 तक चलाती रही 1858 से कंपनी के नियंत्रण तथा संधि वाले इलाकों मे ब्रिटिश शासन लागू हो गया !
तब 1882 मे विलियम विल्सन हंटर कमेटी बनी ! फिर कर्ज़न ने एक गुप्त बैठक शिक्षा पर की ! उसने भी समान संस्तुति दी ! प्राथमिक कक्षा से ही अङ्ग्रेज़ी ज्ञान करने पर ध्यान दिया जाने लगा ! पर भारतीयों के प्रबल विरोध से यह सहमति बनी कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा से हो! फिर छठी से अङ्ग्रेज़ी हो !
इस बीच इंग्लैंड जाकर पढ़ने वाले लोग शांतिपूर्ण आंदोलन के नेता बने जो अङ्ग्रेज़ी शिक्षा के परम प्रशंसक बने रहे !
स्वामी श्रद्धानंद जी ने 1902 मे भारतीय पद्धति से ज्ञान के लिए गुरुकुल काँगड़ी विश्व विद्यालय स्थापित किया ! इसी वर्ष 1902 मे अंग्रेजों ने भारतीय विश्वविद्यालय आयोग बनाया ! 1916 तक 5 विश्व विद्यालय खोल दिये गए ! इनके समानान्तर आर्य समाज ने गुरुकुल पद्धति के विकास पर ज़ोर दिया पर उसे अंग्रेज़ शासन ने अपनी नीति मे स्थान नहीं दिया !
महामना मालवीय जी ने सनातन धर्म महामंडल के अधिवेशन मे हिन्दू विश्व विद्यालय का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे सभी हिन्दू राजाओं रानियों और धर्माचार्यों ने समर्थन दिया ! बाद मे कांग्रेस के अधिवेशन मे भी उन्होने अपनी योजना रखी ! मालवीय जी ने हिन्दू राजाओं से सलाह कर इस विश्व विद्यालय को प्रारम्भ मे अङ्ग्रेज़ी मधायम से शिक्षा का केंद्र बनाकर धीरे धीरे हिन्दी को अपनाने की घोषणा की ! देश भर से सहयोग मिला और यह विश्व विद्यालय1916 ईस्वी मे स्थापित हो गया !
इसके बाद 6 और विश्वविद्यालय अंग्रेजों ने खोले ! मैसूर, हैदराबाद, पटना, अलीगढ़, लखनऊ, ढाका मे ! राष्ट्रीय भावना से काशी विद्यापीठ , तिलक विद्यापीठ , गुजरात विद्यापीठ और बिहार विद्यापीठ बनी ! परंतु मूल धारा अंग्रेजों की बहाई ही बहती रही !
15 अगस्त 1947 के बाद शासन ने भारतीय विश्वविद्यालय आयोग बनाया ! अनेक विश्व विद्यालय बनते और चलते रहे !सब अंग्रेजों की चलायी धारा मे ही !
परंतु यह स्पष्ट होना चाहिए कि विगत 70 वर्षों मे जो भी शिक्षा नीति बनी है , वह भारत के शासकों ने ही बनाई है ! उसका मेकाले से कोई संबंध नहीं है !
वस्तुतः श्री जवाहरलाल नेहरू सोवियत संघ से प्रभावित थे और उन्होने शिक्षा पर पूर्ण राजकीय नियंत्रण आवश्यक माना ! साथ ही भारतीय ज्ञान परंपर को बासी और पुरानी मानकर अंग्रेजों द्वारा चलायी शिक्षा ही और विस्तार के साथ फैला दी ! इसका कोई भी संबंध मेकाले से नहीं है, इसका संबंध नेहरू जी और भारतीय शासकों से है ! यह मन मस्तिष्क से सदैव अभारतीय रहे ! यह निर्णय भारत के नेताओं का है ! वह जब चाहेंगे, शिक्षा को भारतीय बना सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया !
इसलिए भारत की विकृत शिक्षा पद्धति पर मैकाले को गाली देने का कोई मतलब नहीं निकलता है बल्कि सच्चाई यह है कि हमारे गुरुकुलओं के पढ़े हुए पूर्वज ही भारतीय शिक्षा के सर्वनाश का कारण हैं ! इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए !!