शैव साहित्यों की शृंखला ही बहुत विस्तृत है ! वैरोचन के ‘लक्षणसार समुच्चय’ में इन आगमों के विशाल वांगमय का विस्तार से वर्णन है !
शिव के शास्त्र के रूप में ‘शिवधर्म’ और ‘शिवधर्मोत्तर’ ग्रंथों को शैव साधकों द्वारा रचा गया ! ‘शिवधर्म’ में ब्राह्मीलिपि का जिक्र है जबकि ‘शिवधर्मोत्तर’ ग्रन्थ में नंदिनागरी लिपि का वर्णन है !
इसी कारण से लगता है कि ‘शिवधर्म’ ग्रंथ अधिक प्राचीन है जबकि ‘शिवधर्मोत्तर’ ग्रन्थ बाद में लिखा गया मालूम पड़ता है !
इनका मूल शैव भाषा से अनुवाद तथा विस्तार गुप्त काल तथा चालुक्य काल में हुआ प्रतीत होता है ! जिनसे लिंगपुराण, शिवपुराण, नंदिपुराण, सौरपुराण आदि ग्रंथों का निर्माण हुआ है !
इन दोनों ही ग्रंथों पर आधारित ग्रन्थ का संपादन-अनुवाद शैवों की जटिल परंपराओं का सरलीकरण करके उन्हें व्यवहारिक आचरणमूलक बनाने का प्रयास किया गया है !
शैवों का यह मानना है कि सभी के जीवन में करुणा, दया और सहयोग का भाव होना चाहिये ! इसीलिये जब तक वैष्णव आक्रान्ताओं का शैव भूमि पर आगमन नहीं हुआ था, तब तक किसी भी प्रकार के युद्धों का इतिहास में कहीं भी कोई वर्णन नहीं मिलता है !
शैव सदैव से स्वाध्याय को सर्वोच्च प्राथमिकता देते रहे हैं और ज्ञान के सरलतम रूप में शिव की आराधना करते रहे हैं !
सनातन समाज में आतंक, द्वेषमूलक कुकर्म का चलन वैष्णव आक्रान्ताओं की देन है ! शिव और उनके भक्त तो सदैव कल्याणकारी रहे हैं ! उनका भाव सदैव अपने और दूसरे के जीवन को सवारना रहा है !
लिंगपुराण, शिवपुराण, स्कंदपुराण और गरुड़पुराण में शिव के हर आराधना स्वरूप को उत्सव माना गया है ! शिव भक्तों के लिये कभी कोई नियमों का दबाव नहीं रहा है !
इसीलिये शिव उपासना पद्धति सदैव से प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सामग्रियों से की जाती रही है ! जैसी बेलपत्र, धतूरा, शमी पत्र, मदार, दूध, दही, घी, शहद आदि आदि !
जबकि इसके विपरीत वैष्णव उपासना पद्धति आडम्बर युक्त कृतिम संसाधनों से जैसे सिंहासन, मुकुट, पीतांबरी, मिठाई आदि की जाती रही है !
इसीलिये सदैव से शिव भक्ति सरल, सहज, सस्ती, अनुकरणीय और प्रकृति अनुकूल रही है और कर्मकाण्ड के चोंचले तो वैष्णव उपासना में ही मिलते हैं !!