यज्ञ अपना आदर्श, अपनी क्रिया से स्वयं ही प्रकट करता रहता है ! बस आवश्यकता उसे समझने की है !
(1) अग्नि का स्वभाव है कि सदा उष्णता और प्रकाश धारण किये रहती है हम भी उत्साह, श्रमशीलता, स्फूर्ति, आशा एवं विवेकशीलता की गर्मी और रोशनी अपने में धारण किये रहें !
(2) अग्नि में जो वस्तु पड़ती है उसे वह अपने समान बना लेती है, हम भी अपने निकटवर्ती लोगों को अपने समान सद्गुणी बनावें !
(3) अग्नि की ज्योति सदा ऊपर को ही उठती है, उलटने पर भी मुंह नीचे को नहीं करती, हम भी विषम परिस्थितियां आने पर भी अधोगामी न हों वरन् अपने आदर्श ऊंचे ही रखें !
(4) अग्नि कोई वस्तु अपने पास नहीं रखती वरन् जो वस्तु मिली उसे सूक्ष्म बना कर आकाश में फैला देती है, हम भी उपलब्ध वस्तुओं को अपने लिये ही न रखें वरन् उन्हें समाज के हित में वितरण करते रहें !
(5) अग्नि को ही यह शरीर भेंट किया जाने वाला है, इसलिये चिता का सदा स्मरण रखें, मृत्यु को सामने देखें, और सत्कर्मों में शीघ्रता करने एवं दुष्कर्मों से बचने को तत्पर रहें ! इन भावनाओं के प्रतिनिधि रूप में यज्ञाग्नि की पूजा की जाती है !