जो लोग राजनीति की समझ नहीं रखते वह आपातकाल की सौ कमियां गिना देंगे ! लेकिन आपने कभी विचार किया कि आपातकाल के 19 महीनों में देश में जो हुआ ! क्या उसकी वास्तव में आवश्यकता देश को नहीं थी !
संपूर्ण क्रांति या व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन का नारा भले ही उस समय लोकनायक जेपी (जय प्रकाश नारायण) ने दिया था ! लेकिन हक़ीक़त में यह कोशिश श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्रहित में उठाया गया एक सशक्त कदम था ! जिसकी उस समय देश को आवश्यकता थी !
भारतीय संविधान के कुख्यात 42वें संसोधन के बारे में तो आप सभी जानते ही हैं ! जिसे मिनी संविधान निर्माण का भी नाम दिया गया था ! लेकिन इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि इस आपातकाल में इंदिरा सरकार लोकतंत्र की वर्तमान संसदीय प्रणाली को बदलकर राष्ट्रपतीय या अध्यक्षीय प्रणाली लाने पर गंभीरता से विचार कर रही थीं ! स्वयं इंदिरा जी के शब्दों में “देश लोकतंत्र से ऊपर है” !
इस पर सबसे ज्यादा विरोध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने किया था ! क्योंकि नई व्यवस्था में तेजी से बदलते अंतरराष्ट्रीय परिवेश को ध्यान में रखते हुये राष्ट्र के संविधान पर हर बीस वर्ष बाद पुनः समीक्षा, विचार और संशोधन की व्यवस्था बनाई जा रही थी ! जो संघ को निजी राजनैतिक कारणों से पसंद नहीं था !
अत: सख्ती वरताते हुये प्रेस को जबर्जस्त सेंसर किया गया था और सैंकड़ों इस विचाधारा के विरोधी पत्रकारों को जेल में ठूस दिया गया था ! आई.बी. और रॉ भी समय-समय पर सरकार को गोपनीय रिपोर्टें दे रहे थे ! सभी सरकारी व गैर सरकारी कर्मचारी समय पर अपना कार्य कर रहे थे ! सभी सामाजिक संगठन व यूनियन प्रतिबंधित कर दिये गये थे ! आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गये ! जनसंख्या नियंत्रण हेतु पुरुष नसबंदी अभियान चलाया गया !
क्योंकि इन्दा गाँधी का मानना था कि भारत का संविधान जल्दबाजी में और ब्रिटिश सरकार के दबाव में बना था ! जो एक कमजोर केंद्र सरकार होने से देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता को खतरा पहुंचा सकता है ! यदि देश की स्वतंत्रता और संप्रभुता कायम रखनी है तो देश का संविधान बदलना होगा ! नहीं तो लोकतंत्र को ओट में देश टुकड़े- टुकड़े हो कर ख़त्म हो जायेगा !
इसको लेकर लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा “मेरा देश, मेरा जीवन” में लिखा है कि आपातकाल में श्रीमती इंदिरा गांधी तंजानिया जैसे अफ्रीकी देशों में लागू एक दलीय शासन प्रणाली की प्रशंसा की गई थी ! जो भारत के लोकतंत्र के लिये खतरा था ! जिसका आशय है कि इंदिरा जी पूरी गंभीरता से लोकतांत्रिक व्यवस्था परिवर्तन पर विचार कर रही थीं !
संविधान में लोकतांत्रिक भारत की राजव्यवस्था के द्वारा संसदीय व्यवस्था में मंत्रीमंडल उत्तरदायित्व सामूहिक और संसद के प्रति होता है ! मतलब सरकार या सरकार का मुखिया जो भी करता है ! उसका जवाब उसे मात्र संसद में देना होता है जबकि में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लाई जाने वाली व्यवस्था में राष्ट्रपतीय प्रणाली के अंतर्गत मंत्रीमंडल का ऐसा कोई सामूहिक दायित्व नहीं होता !
इसमें संसद और राष्ट्रपति बिल्कुल दो अलग-अलग छोरों पर रहकर काम करते हैं ! जहाँ राष्ट्रपति से रोज-रोज प्रश्न नहीं पूछे जा सकते हैं ! एक अन्य महत्वपूर्ण अंतर यह भी है कि राष्ट्रपतीय प्रणाली में राष्ट्र का प्रमुख सीधे जनता द्वारा निर्वाचति होता है और वह सीधा जनता के प्रति जवाबदेह होता है !
हमारे संविधान के अनुच्छेद 83 में विशेष परिस्थितियों में संसद का कार्यकाल बढ़ाने का प्रावधान मिलता है लेकिन आपातकाल के दौर में सरकार इतने से संतुष्ट नहीं थी ! इसीलिये उसने संविधान संसोधन का सहारा लिया ! यह भी व्यवस्था परिवर्तन का एक उदाहरण है !
देश में यह नई व्यवस्था कैसी हो और कैसे इसे लाया जाये ! इस बात की जानकारी हमें वरिष्ठ पत्रकार और आपातकाल के समय जेल में रहने वाले कुलदीप नैयर की किताब “इमरजेंसी रिटोल्ड” से भी मिलती है ! हालांकि इंदिरा गांधी व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन चाहती थीं ! लेकिन उनके सलाहकार और कथित प्रोग्रेसिव समर्थक भी इस परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे ! क्योंकि उनका मानना था कि जनता को ‘शांत’ और ‘अनुशासित’ रखने के लिये किसी नई व्यवस्था की जरुरत नहीं, वर्तमान व्यवस्था ही पर्याप्त है !
फिर भी कई बड़े लोगों ने इंद्रा गाँधी के इस संविधान में बदलाव लाने पर गंभीर विचार दिया था ! जिसमें लंदन में भारतीय उच्चायुक्त और परिवार के संबंधी बी.के. नेहरू भी शामिल थे ! बी.के. नेहरू ने सुझाव दिया कि भारत में फ्रांस जैसा संविधान होना चाहिये ! जहाँ प्रधानमंत्री की जगह राष्ट्रपति शीर्ष पर हो और शक्ति का वास्तविक प्रयोगकर्ता भी वही हो !
इंदिरा जी के बाद नंबर दो की हैसियत रखने वाले संजय गांधी थे ! इनके अनुसार चुनाव कराने मात्र 5 वर्ष का कार्यकाल जल्दबाजी है ! इसे बढ़ाया जाना चाहिये ! यह बात शायद विश्व सत्ता को पसंद नहीं आयी ! इसीलिये संजय गाँधी की असमय हत्या हो गई !
तीसरे व्यक्ति थे देवकांत बरुआ ! जो लिये संजय गांधी के लिये विवेकानंद के समान थे ! जो भारत को सशक्त बनाने के लिये इंदिरा गांधी को लम्बे समय तक भारत की सत्ता में देखना चाहते थे !
अब प्रश्न उठता है कि इतना सब होने के बाद इंदिरा गांधी ने इस विचार को क्यों त्याग दिया ? वह भी ऐसे समय जब कोई भी उनके निर्णय पर सीधे-सीधे ‘न’ बोलने की हिम्मत नहीं करता था ! पार्टी और सरकार में भी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले संजय गांधी इसके पक्ष में ही थे और संजय गांधी ने मुख्यमंत्रियों को इस हद अपनी उंगलियों पर नचा रखा था कि मुख्यमंत्री स्वयं उन्हें हवाई अड्डे पर अगवानी करने जाते थे !
इसका जवाब या तो शायद इंदिरा जी स्वयं जानती थीं या फिर इसे तत्कालीन विश्व सत्ता द्वारा पैदा की गई परिस्थियों में खोजा जा सकता है ! दरअसल, जब से आपातकाल लगी थी ! तब से विश्व सत्ता के दलालों द्वारा देश में यह माहौल बनाने की कोशिश की जा रही थी कि मध्यम वर्ग इस नई व्यवस्था से बहुत खुश है ! उच्च या पढ़े-लिखे वर्ग को इससे ज्यादा मतलब नहीं है ! क्योंकि इस वर्ग की प्रतिक्रिया सभी कार्य विवस्थित होने के कारण संतुलित थी !
लेकिन अगर ऐसा हो गया तो सारे लोकतांत्रिक अधिकार ख़त्म हो जायेंगे ! जिससे गरीब मजदूरों का शोषण होगा और उनकी कोई सुनवाई नहीं होगी ! क्योंकि भारत गरीबी प्रधान देश है अत: इस वजह से इंद्रा गाँधी के विरुद्ध वातावरण बना और वह सत्ता से बाहर हो गई ! इसी बीच 23 जून 1980 को संजय गाँधी की हत्या करवा कर इंद्रा गाँधी का आत्मबल तोड़ दिया गया फिर 31 अक्तूबर 1984 इंद्रा गाँधी की हत्या करवा कर यह विषय सदा के लिये भारत की राजनीति में विश्व सत्ता द्वारा ख़त्म कर दिया गया !