सनातन शैव संस्कृति अनादि है, अनंत है और काल से परे है ! क्योंकि इस संस्कृति के संस्थापक भगवान शिव ने स्वयं की है ! जो स्वयं काल से परे हैं !
भगवान शिव का कभी जन्म नहीं हुआ है इसलिये वह अनादि हैं, उनका जन्म नहीं हुआ है इसलिए उनकी कभी मृत्यु भी नहीं होगी इसीलिए भगवान शिव अनादि और अनंत हैं !
इस तरह जिस संस्कृति के संस्थापक भगवान शिव स्वयं हैं, वह सनातन शैव संस्कृति भी अनादि और अनंत है !
भगवान शिव का अनुगमन करने वाले लोगों ने कब वृक्ष की पूजा शुरू की, कब नदियों को पूजना शुरू किया, कब पर्वतों की पूजा शुरू की, पंच तत्वों, ग्रह, नक्षत्रों के शक्ति और रहस्य को जानकर उनको कब पूजना शुरू किया ! यह कोई नहीं जानता है !
इसलिए सनातन शैव जीवन शैली अनादि और अनंत है और यह सृष्टि के अंत तक अवश्य रूप में स्थापित रहेगी, क्योंकि यही मनुष्य के जीवन का आधार है ! यदि सनातन शैव जीवन शैली ही नष्ट हो जाएगी, तो मनुष्य भी इस पृथ्वी से स्वत: ही नष्ट हो जाएगा !
जबकि वैष्णव संस्कृति को हम जानते हैं कि यह विवत्स मनु द्वारा स्थापित की गई संस्कृति है ! इसलिए एक दिन इसका अंत भी होगा ही ! जिसका संस्थापक मनुष्य है वह नष्ट होगा ही ! यही काल की व्यवस्था है !
इसी तरह अन्य संस्कृतियों यहूदी, ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन आदि के आरंभ समय ज्ञात है, तो इनका अंत समय भी अवश्य ही होगा ! यही प्रकृति की व्यवस्था है ! जो व्यक्ति या संस्कृति किसी विशेष कालखंड में जन्म लेती है ! उसके समाप्त होने की तिथि उसके स्थापना के दिन ही निश्चित हो जाती है !
लेकिन सनातन संस्कृति कब शुरू हुई, इसका कोई भी लेखा-जोखा रिकॉर्ड इस पृथ्वी पर मौजूद नहीं है ! कोई भी व्यक्ति यह नहीं बता सकता है कि प्रकृति के रहस्य को जानकर मनुष्य ने प्रकृति की आराधना कब से प्रारंभ की !
कब व्यक्तियों ने पेड़ पौधों को पूजना शुरू किया ! कब पर्वतों की पूजा शुरू हुई ! नदियों को मां कहकर कब संबोधित किया ! कब पंच तत्वों के रहस्य को जानकर उसकी आराधना शुरू की ! यह सब कोई भी नहीं जानता है !
इसलिए सनातन शैव संस्कृति का क्योंकि कोई आदि नहीं है, इसलिए इसका कोई अंत भी नहीं होगा !
इस तरह अतः स्पष्ट है कि सनातन शैव संस्कृति का अनुगमन करने वाला भी साधना की शक्ति से काल के प्रवाह के बाहर चला जाता है !
क्योंकि काल ही सीमाओं का निर्धारण करता है और जब किसी संस्कृति की कोई सीमा ही नहीं है, तो उसका अनुगमन करने वालों के ऊपर भी काल का प्रभाव नहीं पड़ता है और वह “मृत्युंजयी” अर्थात मृत्यु को जीतने वाला हो जाता है !
ऐसे लोग स्वेच्छा से इस पृथ्वी को छोड़कर जाते हैं ! जैसे भीष्म पितामह, महर्षि मार्कंडेय, ऋषि दुर्वासा, देवरहा बाबा आदि हुए हैं !!