अन्नप्राशन एक अहम संस्कार है , जानिए क्या है इसका महत्व !

अन्नप्राशन

हिंदू धर्म में कुल 16 संस्कारों का वर्णन हैं, जिनमें से अन्नप्राशन एक अहम संस्कार है। 16 संस्कारों में इसे सातवां संस्कार माना गया है। इस संस्कार के साथ बच्चे को अन्न खिलाना शुरू किया जाता है। देशभर के अलग-अलग राज्यों में इस संस्कार को अलग-अलग नाम से बुलाया जाता है, जैसे केरल में चूरूनू और बंगाल में मुखे भात।
गर्भाधान से सातवाँ संस्कार अन्नप्राशन जन्म से लेकर एक वर्ष के भीतर सम्पन्न किया जाता है ! शिशु को प्रथम बार अन्न की बनी वस्तु खिलाने अर्थात् ठोस अन्न का आहार प्रथम बार देने का नाम ‘अन्नप्राशन’ है ! प्राचीन परम्परानुसार षष्ठ मास से ऊपर सम मास (6,8,10,12) में पुत्र का तथा पाँचवें मास से आगे विषम मास (5,7,9,11) में यथावसर कन्या का अन्न प्राशन होना चाहिये ! उसमें भी बालक को चन्द्रबल शुभ होने पर शुक्ल पक्ष रहे, यह आवश्यक है ! इस संस्कार के लिये शुक्ल पक्ष लेना चाहिये ! मंगल और शनिवार इस कार्य के लिये वर्जित है ! तिथियाँ रिक्ता (4,9,14), नन्दा (1,6,11), पर्व (15,30), द्वादशी व अष्टमी/सप्तमी को छोड़कर शेष में से कोई लेनी चाहिये ! नक्षत्र मृदु, लघु, चर, स्थिर संज्ञक हो ! तीनों पूर्वा, आश्लेषा, आर्द्रा, शतमिषा और भरणी वर्जित है !

मतान्तर से अनुराधा, शतमिषा, स्वाती और जन्म-नक्षत्र को शुभ नहीं बतलाया गया है ! मीन, मेष, वृश्चिक लग्न को व जन्म लग्न या राशि से अष्टम लग्न व नवांश को छोड़कर शेष लग्नों (वृष, कन्या, मिथुन लग्न श्रेष्ठ माने गये हैं) में लग्न शुद्धि देखकर शुभ वारों में अन्नप्राशन करायें ! नक्षत्र और तिथियों में मतान्तर भी पाया गया है ! इस संस्कार में दशम भाव में भी कोई ग्रह लग्न कुण्डली में न हो तथा न ही उस पर कोई कुदृष्टि हो ! सूर्य होने पर मृगी, मंगल होने पर दुबलापन तथा शनि होने पर पक्षाघात की सम्भावना रहती है ! उपर्युक्त शुभ मुहूत्र्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता या दादा-दादी सोने या चाँदी की शलाका से या छोटे चम्मच से निम्नलिखित मंत्र से बालक को खीर आदि पुष्टिकर अन्न चटावें !

‘‘शिवो ते स्तां ब्रीहियवावबलासावदोमधौ ! एतौ यक्ष्मं वि वाधेते, एतौ मुच्चतो अहंसः ! !’’ (अथर्ववेद 8/2/18)

‘हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक बने, ये अन्न तुम्हारे लिये अन्न न होकर देवान्न हो तथा तुम्हें सभी रोगों एवं पाप कर्मों से मुक्त रखे !’ प्रयोग पारिजात में कहा गया है –

दशमस्थानगान् सर्वान् वर्जयेन्मतिमान्नरः ! अन्नप्राशनकृत्येषु मृत्युक्लेशभयावहान् ! !

अन्नप्राशन के समय सिर की टोपी हटा लें तथा दक्षिण की ओर मुख न करवायें ! शास्त्र से लोक परम्परा बलवती होती है ! आजकल डाक्टर की सलाह पर चौथे मास में ही अन्न खिलाना प्रारम्भ कर देते हैं ! तथापि अन्य मुहूर्त का विचार अवश्य करना चाहिये ! भोज्य पदार्थ का भोक्ता के शरीर, मन एवं आत्मा पर पूर्ण प्रभाव होता है ! यदि भोज्य तामसिक है, अथवा पाप-दोषयुक्त है, तो व्यक्ति की आत्मा पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है !

जब शिशु 3-6 मास का हो जाये, तब उसे इस संस्कार से युक्त करना चाहिये, जिससे शिशु द्वारा ग्रहण किये गए भोज्यान्न से उसके जीवन में उच्च संस्कार तथा उच्च भाव वृत्तियों का सृजन हो सके ! इससे उसमें उदात्त गुणों का प्रस्फुटन होता है ! अन्न दोष से जो अनेक दुर्गुण अज्ञात रूप से मनुष्य को विरासत में मिल जाते हैं, वे इस संस्कार के प्रभाव से उत्पन्न नहीं होते हैं ! संस्कार प्राप्ति हेतु माता-पिता स्वयं अपने तथा शिशु कि लिये ‘अन्नपूर्णा’ देवी की पुजा अवश्य करें ! अन्नप्राशन संस्कार मूलभूत रूप में देवी अन्नपूर्णा की ही साधना है ! इसे शिशु के लिये माता अथवा पिता को सम्पन्न करना चाहिये ! इस साधना के प्रभाव से शिशु कृशकाय, रोगी या जीर्ण-शीर्ण नहीं रहता ! अन्न शक्ति से उसका शरीर पुष्ट रहता है ! अन्नपूर्णा मन्त्र:-

‘‘ॐ क्रीं क्रुं क्रों हूं हूं ह्रीं ह्रीं ॐॐॐॐ अन्नपूर्णायै नमः’’

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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