प्रकृति से सहयोग लेने के दो तरीके हैं ! पहला प्रकृति से आग्रह अर्थात प्रार्थना या अनुष्ठान आदि करके प्रकृति से सहयोग लेना और दूसरा तरीका है तंत्र आदि का प्रयोग करके जबरदस्ती प्रकृति से सहयोग करवा लेना !
पहली पद्धति में जब व्यक्ति प्रार्थना, अनुष्ठान आदि करके प्रकृति से सहयोग लेता है तब उस व्यक्ति में प्रकृति के आगे निरीह होने का भाव होता है और प्रकृति सर्व समर्थवान होती है ! ऐसी स्थिति में प्रकृति के आगे मनुष्य विवश होता है और वह मात्र प्रार्थना या अनुष्ठान के द्वारा ही प्रकृति की कृपा प्राप्त कर सकता है !
दूसरी स्थिति में तंत्र आदि का प्रयोग करके जब व्यक्ति प्रकृति को अपना सहयोग करने के लिए बाध्य कर देता है, तो उस स्थिति में तत्काल प्रभाव में तो प्रकृति का सहयोग प्राप्त हो जाता है परन्तु जब व्यक्ति की स्थितियां उसके अनुकूल नहीं होती हैं ! प्रकृति का प्रकोप भी उस व्यक्ति को झेलना पड़ता है ! इसका सबसे बड़ा उदाहरण रावण है जिसने तंत्र की पराकाष्ठा पर जाकर ग्रह, नक्षत्र व प्रकृति की संपूर्ण व्यवस्था को अपने अनुकूल कार्य करने के लिए बाध्य कर दिया था किन्तु जब रावण की स्थिति उसके अनुकूल नहीं रही तब प्रकृति ने अपने संपूर्ण प्रकोप से उसका सर्वनाश कर दिया !
इसलिए तंत्र आदि के द्वारा प्रकृति को सहयोग के लिए बाध्य करने की जो प्रक्रिया है ! वह दूरगामी दृष्टिकोण से उचित नहीं है ! इसीलिए हमारे सनातन मनीषियों ने तंत्र की प्रक्रिया को तामसी प्रक्रिया बतला कर उसे न करने का निर्देश दिया है !
अब मैं एक तीसरी व्यवस्था की चर्चा करता हूँ ! “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधना ही वह व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति न तो प्रकृति से आग्रह करता है और न ही प्रकृति के साथ कोई जबर्दस्ती करता है ! बल्कि “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधना द्वारा व्यक्ति प्रकृति का सहयोगी बन जाता है और धीरे-धीरे इस तरह की शक्तियां अर्जित कर लेता है कि वह प्रकृति के समानांतर ही उन शक्तियों का उपयोग कर सकता है ! यहां पर व्यक्ति न निरीह होता है और न ही तांत्रिकों की तरह हठी होता है ! इसलिए “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधना का मार्ग सर्वश्रेष्ठ और संतुलित मार्ग है !
अब प्रश्न यह उठता है कि यदि यह मार्ग ही श्रेष्ठ है तो व्यक्ति अन्य मार्गों पर जाता ही क्यों है ! इसका उत्तर है कि जिस व्यक्ति के जैसे संस्कार होते हैं, ईश्वर से सहयोग लेने के लिए व्यक्ति उस तरह के मार्ग का चयन करता है ! यदि व्यक्ति का व्यक्तित्व निरंतर आग्रह करते रहने का है तो वह सदैव प्रार्थना, अनुष्ठान आदि की पद्धति में विश्वास रखेगा और यदि व्यक्ति अहंकारी व हटी है तो वह सदैव प्रकृति को अपने नियंत्रण में रखने की कामना से प्रकृति के साथ बल प्रयोग करता रहेगा !
किंतु “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधक प्रकृति की व्यवस्था में सहयोग करके प्रकृति के शक्तियों का उपयोग करते हुये अपने कार्य के संपादन में विश्वास रखता है ! यहां साधक का आत्मविश्वास प्रबल होता है और वह प्रकृति का अंश बन जाने की इच्छा से निरंतर साधना करता रहता है ! जब उसे साधना करते-करते प्रकृति के कार्य पद्धति का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तो वह प्रकृति की व्यवस्था में पूरा सहयोग करने लगता है !
कालांतर में प्रकृति ही उसे अपने सहयोगी के रूप में स्वीकार कर लेती है ! धीरे-धीरे प्रकृति के पंचतत्व अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश आदि सभी कुछ उस व्यक्ति के इच्छा के अनुरूप अभिव्यक्ति करने लगते हैं ! बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, महात्मा आदि इसका जीता जागता उदाहरण रहे हैं ! इसलिए “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधना ही आज के युग में सर्वश्रेष्ठ साधना पद्धति है और साधकों को इसी मार्ग पर चलना चाहिये !