एक आध्यात्मिक किन्तु व्यावहारिक विश्लेषण
सांख्य-दर्शन की अवधारणा है कि व्यक्ति (जीव) स्वयं कुछ भी नहीं करता, जो कुछ भी करती है प्रकृति करती है ! बंधन में भी मनुष्य को प्रकृति ही डालती है तो मुक्त भी मनुष्य को प्रकृति ही करेगी ! यानि मनुष्य सिर्फ़ प्रकृति के इशारे पर नाचता है ! इस विचारधारा के अनुसार तो मनुष्य या व्यक्ति में कोई निजी व्यक्तित्व है ही नहीं !
इन अवधारणाओं का खंडन और निषेध करते हुए आदि गुरु शंकराचार्य ने मनुष्य के गरिमा की स्थापना करते हुये “अहम् ब्रह्मास्मि” का पुरुषार्थ से भरा हुआ सिधान्त स्थापित किया ! जिसका समर्थन यजुर्वेद भी करता है !
अर्थात सांख्य-दर्शन मनुष्य की आम अवधारणा का विषय है लेकिन “अहम् ब्रह्मास्मि” सिधान्त पूर्ण पुरुषार्थ के साथ अपने अन्दर परिवर्तन करके स्वयं को ही ब्रह्म तुल्य शक्तिशाली बना लेने का विषय है !
अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह बतलाता है कि जाग्रत क्रियाशील मनुष्य स्वयं संप्रभु है ! उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है ! इसलिए हे मानवों अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो ! आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो ! तुम स्वयं शक्तिशाली हो -उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो, उसे प्राप्त करने लिये उद्यम करो ! क्योंकि प्रकृति ने ऐसा कुछ भी नहीं बनाया है जो तुम्हें प्राप्त न हो सके !
अर्थात जब “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” की साधना करते-करते व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म तुल्य समर्थवान समझने लगता है, तब व्यक्ति को बहुत संभावना यह भी दिखती है कि जो उसके सामने है वह भी ब्रह्म तुल्य सामर्थ्यवान हो सकता है ! इसीलिए “अहम् ब्रह्मास्मि” के आगे “त्वं ब्रह्मास्मि” का प्रयोग किया गया है ! साधना के एक निश्चित स्तर पर व्यक्ति जब पहुंच जाता है तब उसे सृष्टि में हर व्यक्ति ब्रह्म तुल्य समर्थवान लगने लगता है तब मैं और तू का भेद मिट जाता है !
अर्थात किसी भी दूसरे को बदलने का सामर्थ यदि आपको अपने अंदर पैदा करना है तो सबसे पहले अपने आप को प्रकृति के अनुरूप बदलना पड़ेगा ! यदि आपने अपने को प्रकृति के अनुरूप बदल कर स्वयं को प्रकृति का अंश बना लिया है तो आप भी प्रकृति की तरह ही कार्य करना प्रारंभ कर देंगे ! “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” इसी परिवर्तन के प्रारंभ की प्रक्रिया है ! “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” की निरंतर साधना करने वाला व्यक्ति जब ईश्वरी है कंपन की प्रक्रिया को समझ लेता है, तो वह ईश्वरीय कार्य में सहयोग करने लगता है और धीरे धीरे ईश्वरीय व्यवस्था का अंश हो जाता है !
इसी तरह जो व्यक्ति ईश्वरीय व्यवस्था का अंश हो जाता है, उसमें इस तरह का सामर्थ्य पैदा हो जाता है कि वह किसी दूसरे को भी मार्ग दिखला कर उसी ईश्वरीय व्यवस्था का अंश बना सकता है ! इसलिए यदि आप अपने आप में सामर्थवान बनना चाहते हैं तो “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” पद्धति से साधना करके आप अपने आपको इतना सामर्थवान बना सकते हैं कि आपकी प्रकृति की व्यवस्था में सीधी भागीदारी शुरू हो जाये !
जब प्रकृति की व्यवस्था में आपकी भागीदारी होगी, तो प्रकृति के इशारे पर चलने वाले सभी लोग आपके अनुसार कार्य करने लगेंगे ! आपने शास्त्रों में पढ़ा होगा कि हमारे पूर्वजों में इतना सामर्थ था कि वह अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश, समय, जीवन और मृत्यु आदि को नियंत्रित कर लेते थे !
यह समर्थ उनमें ईश्वरी ऊर्जा का सहयोग करने से प्राप्त होती थी और यह ईश्वरी ऊर्जा का सहयोग वह लोग “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधना के द्वारा प्राप्त करते थे यदि आप भी अपने जीवन में लाचारी से मुक्त होना चाहते हैं ! तो “ब्रह्मास्मि क्रिया योग” साधना करके अपने आप को सर्व सामर्थ्यवान और सर्वशक्तिमान बनाइये !