दलित” और “शूद्र” में अंतर :महत्वपूर्ण जानकारी : Yogesh Mishra

“दलित” और “शूद्र” में वही अंतर है जो स्वर्ण और पीतल में होता है ! आधुनिक और सामान्य अर्थ में, लोकविधान के अनुसार, सनातन धर्म के चार वर्णों में से चौथा वर्ण शूद्र कहलाता है ! इनका कार्य उद्योग करना और शिल्प के काम करना माना गया है ! कुछ वैश्य वर्ण भी उच्च कोटी के धातु के भी शिल्प कार्य करते थे !

यजुर्वेद में शूद्रों की उपमा समाजरूपी शरीर के पग से दी गई है ! अर्थात अर्थव्यवस्था का मूल यही हैं ! इन्ही की उपमा है ! अर्थात समाजरूपी शरीर इन्ही के अर्थव्यवस्था के पैर से समाज गतिशील होती है ! इसीलिये शास्त्र इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से मानते हैं !

विविध युगों और परंपराओं में शूद्रों की स्थिति विभिन्न रही है ! डॉ भीमराव आम्बेडकर का मत है कि शूद्र मूलतः आर्य थे ! पूर्वाग्रह से ग्रसित कुछ मैकाले पुत्र अपनी अज्ञानता एवं संकीर्ण मानसिकता के कारण शूद्र एवं दलित को एक ही मानते हैं तथा पश्चिमी असभ्यता के कुप्रभाव में आकर वैदिक शास्त्रों का अध्ययन किये बिना ही वैदिक शास्त्रों के विरुद्ध ऊल-जलूल बकते रहते हैं !

दलित और शूद्र के मध्य अंतर समझने के लिये सर्वप्रथम दलित का अर्थ समझना होगा ! “दलित” शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के “दल्” धातु से हुई है ! दलित शब्द “फलित” शब्द का विलोम है ! दलित एवं फलित का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है !

“दलित” – : पीड़ित, शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकडा, खंडित, तोडना, कुचलना, दला हुआ, पीसा हुआ, मसला हुआ, रौंदा हुआ, विनष्ट !!

“फलित” – : पिडामुक्त, उच्च, प्रसन्न, खुशहाल, अखंड, अखंडित, जोडना, समानता, एकरुप, पूर्णरूप, संपूर्ण !!

उपरोक्त शाब्दिक अर्थों से यह ज्ञात होता है कि दलित और फलित शब्द किसी जाति विशेष के लिये नहीं है बल्कि दलित और फलित तो कोई भी हो सकता है चाहे वह ठाकुर हो, पण्डित हो, बनिया हो, भंगी हो, चमार हो या हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो, जैन हो, पारसी हो अथवा किसी भी जाति या मजहब का हो !

दलित अंग्रेजी अनुवाद “डिप्रेस्ड क्लास” अवसाद ग्रस्त समाज का हिन्दी अनुवाद है ! जबकि कि भारत में कभी भी शूद्र समाज अवसाद ग्रस्त नहीं रहा ! उन्हें भी सदैव से समानता का अधिकार था ! डिप्रेस्ड क्लास दलित की जनगणना 1911 में की गई ! जिन्हें वर्तमान में अनुसूचित जातियां रखा जाता है !

अंग्रेजी भाषा में दलित शब्द का अर्थ OPPRESSED अर्थात उत्पीड़ित होता है ! सर्वप्रथम उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ( ईसाईयों ) द्वारा भारतीयों की प्राचीन सामजिक व्यवस्था को तोड़ने के लिये उत्पीड़ित अर्थात दलित शब्द का प्रयोग एक जाति विशेष के लिये प्रारम्भ किया गया था !

उन्नीसवी सदी से पूर्व भारतीय समाज में दलित शब्द का प्रयोग किसी समुदाय अथवा जाति विशेष के लिये नहीं किया जाता था ! उन्नीसवीं सदी से पूर्व इस सम्पूर्ण भू–लोक में दलित जाति का एक भी व्यक्ति अस्तित्व में नहीं था !

क्योंकि सनातन वैदिक व्यवस्था में वसुधैव कुटुम्बकम् के अंतर्गत वैदिक शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों को चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) में बाँटा गया था ! जो कि कर्म आधारित व्यवस्था थी ! जन्म आधारित नहीं थी और इन चार वर्णों से भिन्न पाँचवे को अनार्य, असुर, दैत्य, दानव या दस्यु कहा गया था !

किसी भी वैदिक शास्त्र में कहीं पर भी दलित जाति के लिये कोई भी आज्ञा अथवा निर्देश नहीं दिया गया है और न ही शूद्र ही दलित होता है इस प्रकार का वर्णन आया है !

इससे यह स्पष्ट है कि दलितों के जनक अंग्रेज ( ईसाई ) हैं, जिसका भारतीय वर्ण व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं है ! अंग्रेज ईसाइयों ने भारतीयों की सामाजिक एकता तोड़ने के लिये दलित शब्द की जाति को जन्म दिया था और और योजनाबद्ध तरीके से दलित शब्द के महत्व को बढ़ाने के लिए दलितों के नेताओं का चयन कर उन्हें विभिन्न तरह की सुविधाएं प्रदान करके दलित शब्द को समाज में प्रचारित किया गया ! जिसे अज्ञानतावश आज भी हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग बिना सोचे समझे, बिना अपने पूर्वजों का इतिहास जाने “दलित शब्द को जाति सूचक शब्द” का मानता है !

हमारे देश के कुछ देशद्रोही असामाजिक तत्व विदेशियों के इशारे पर देश में अस्थिरता उत्पन्न करने के लिये विदेशों से पैसे लेकर दलितवाद का झंडा उठाये रहते हैं ! ऐसे समाज विरोधी स्वार्थी लोग देश के गद्दारों के साथ मातृभूमि का सौदा करने के लिये सदैव तैयार रहते हैं ! और अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिये समाज में जातिवाद का जहर घोलते रहते हैं !

दलित और शूद्र के मध्य अंतर समझने के लिये शूद्र वर्ण की परिभाषा समझना आवश्यक है जो कि वैदिक शास्त्रों में दी गई है !

“ शोचनीयः शोच्यां स्थितिमापन्नो वा सेवायां साधुर अविध्द्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा “ अर्थात शूद्र वह व्यक्ति होता है जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति में होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिंता बनी रहती है अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण पोषण की चिंता की जाती हो ! वही शूद्र है !!

“शूद्रेण हि समस्तावद यावत् वेदे न जायते” अर्थात जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता है ! तब तक वह शूद्र के समान है वह चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो !

“जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात द्विज उच्यते” अर्थात प्रत्येक मनुष्य चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो वह जन्म से शूद्र ही होता है ! उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर विदध्याध्ययन करने के बाद ही द्विज बनता है !
जो मनुष्य अपने अज्ञान तथा अविद्ध्या के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता है ! वह शूद्र है !

उपरोक्त तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि शूद्र एवं दलित एक दूसरे से भिन्न हैं ! शूद्र कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था में आता है जबकि दलित अंग्रेज और मुगलों द्वारा दी गयी जन्मजात व्यवस्था में आता है !
वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्रों को वर्ण परिवर्तन का अधिकार है ! शूद्रों को अछूत नहीं माना जाता है ! वह सवर्णों के सभी संस्कारों के पालन में सहयोगी एवं आवश्यक अंग रहे हैं ! शूद्रों को समाज में सम्माननीय था ! शूद्रों को मनुस्मृति के अनुसार दण्ड में भी छूट थी !

जबकि इसके विपरीत अंग्रेजों द्वारा निर्मित दलित जाति के लोगों को अंग्रजों के ही द्वारा दिये गये भारतीय संविधान में न तो जाति परिवर्तन का अधिकार है और न ही उन्हें कहीं भी दण्ड व्यवस्था में किसी प्रकार की छूट दी गयी है !

इस प्रकार सिद्ध होता है कि “दलित” और “शूद्र” के मध्य बहुत अंतर है ! उन्हें एक समझने की गलती न करें !!

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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