क्या फिलोसोफी दर्शन का अनुवाद है ! ऐसा नहीं है, दोनों अलग अलग हैं ! दुनिया में कोई भी दो शब्द पूरी तरह से एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं हो सकते हैं !
दर्शन शब्द भारतीय परंपरा ने गढ़ा है और दर्शन का जो मूल शब्द है वह “दृश्” धातु से बना है ! अर्थात देखने की क्रिया या देखना !
सामान्यतया देखने का कार्य आँखों करती हैं ! जिसके लिए संस्कृत में एक शब्द चलता है “चक्षु” ! लेकिन जब हम किसी विषय को देखे हुए उससे अपने को जोड़ कर अनुभूत करने लगते हैं और इस देखने के बाद अनुभूत करना और अनुभूत विषय पर अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुये उससे जुड़ जाना और जुड़ कर उस विषय का ही नहीं बल्कि अपने भी ज्ञान का विकास करना सामान्य भाषा में दर्शन कहा जाता है ! जो लोग इस तरह की प्रक्रिया अपनाते हैं, उन्हें इस तरह के सोच विचार के लिये ज्ञान चक्षु, प्रज्ञा चक्षु, प्रज्ञा बुद्धि, दिव्यचक्षु आदि का स्वामी भी कहते हैं !
किसी ज्ञान चक्षु का सक्रिय होना ही बोध होना कहा गया है ! जैसे गौतम बुद्ध को हुआ, महावीर जैन को हुआ, कबीर दास, मीराबाई, रहीम दास, रैदास, तुलसीदास, अरविंदो, ओशो आदि न जाने कितने नाम लिए जा सकते हैं ! जिनकी ज्ञान चक्षु सक्रिय हो गयी और वह आज युगपुरुष हो गये !
अर्थात सामान्य नेत्र से देखे हुए विषय को दिव्य ऊर्जा के सहयोग से उस विषय के विस्तार करने का सामर्थ्य जिस व्यक्ति ने प्राप्त कर लिया वह दार्शनिक हो गया !
जबकि पश्चिम में फिलॉसफी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है ! एक फिलॉस और दूसरा है सोफिया !
फिलॉस का मतलब होता है प्यार या प्रेम और सोफिया का अर्थ है ज्ञान, नॉलेज !
अर्थात पश्चिम के शब्दों में फ्लॉसी से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसे ज्ञान से प्रेम हो गया अर्थात जो अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहता है ! जिसके लिए भारतीय जीवनशैली में “जिज्ञासु” शब्द प्रयोग किया गया है !
इसीलिए पश्चिम के दार्शनिक विषय की गहराई में जाना चाहते हैं और उसके लिए वह अधिक से अधिक सांसारिक सूचना प्राप्त करने में विश्वास रखते हैं ! जो हमारे यहां जिज्ञासु करता है !
जबकि हमारे यहां के दार्शनिक विषय की उच्चतम और सूक्ष्मतम पराकाष्ठा पर जाना चाहते हैं ! जिसके लिए कोई भी सांसारिक सूचना उन्हें उस पराकाष्ठा पर नहीं पंहुचा सकती है, अतः भारतीय दार्शनिक ईश्वरी संदेशों का सहारा लेकर उस विषय की दिव्यता को जानने का प्रयास करते हैं !
और जो व्यक्ति ईश्वरीय संदेशों से दिव्यता को जान लेता है, वह जब अपना ज्ञान अपने शिष्यों को देता है तो उसे उपनिषद कहते हैं !
हमारे यहां कहने को तो 108 उपनिषद वर्तमान में उपलब्ध हैं ! लेकिन वास्तव में उपनिषदों की संख्या एक लाख से अधिक है ! क्योंकि हर गुरुकुल का आचार्य अपने को विकसित करके दिव्य ऊर्जा के माध्यम से एक नए आयाम से सांसारिक ज्ञान को अपने शिष्यों को बतलाने की इच्छा रखता था ! जिसके लिए वह तपस्वी जीवन जीता था और इसी तपस्वी जीवन के कारण उसका उस काल में समाज में अतिरिक्त सम्मान था !
जबकि पश्चिम के जगत में दार्शनिकों को शासकों द्वारा सम्मान नहीं दिया जाता था बल्कि मार दिया जाता था ! फिर वह चाहे सुकरात हों, ब्रूनो हों, यीशु हों, ओशो हो, या कोई और महान दार्शनिक हों !
लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं है ! व्यक्ति चाहे आस्तिक दर्शन का विस्तार कर रहा हो या नास्तिक दर्शन का विस्तार कर रहा हो ! हमारे यहां कभी भी दार्शनिक की हत्या नहीं की जाती थी !
नहीं तो सबसे पहले गौतम बुद्ध को ही मार दिया गया होता क्योंकि वह नास्तिक दर्शन के प्रथम पुरोधा थे ! जिनके अनुयायियों ने भारत के अस्तित्व को ही ग्रीक शासकों के सामने गिरवी रख दिया था !
यही भारतीय दर्शन भारतीय सनातन संस्कृति के समग्र और चिरंजीवी होने का कारण है ! जबकि पश्चिम के देशों की सैकड़ों संस्कृतियों मिट गई !!