राष्ट्र धर्म और नागरिक कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू है ! राष्ट्र की उन्नति और समृद्धि इस बात पर टिकी है कि उस देश के नागरिकों को अपने कर्तव्य का बोध है कि नहीं ! राष्ट्र का अर्थ किसी सीमा विशेष से बंधा हुआ नहीं है ! राष्ट्र शब्द के मूल में सम-धर्म-भाव-समान की भावना निहित है ! यही भावना विश्व को एक सूत्र में पिरोती है, इस भावना का उदय होते ही राष्ट्र की सीमाएं लुप्त हो जाती हैं ! राष्ट्र का व्यापक अर्थ विश्व के समस्त राष्ट्रों द्वारा नागरिको व उनकी संस्कृति का अपने राष्ट्र में समान रूप से आदर करना है ! इस चेतना के लुप्त होने के कारण ही विश्व के राष्ट्रों की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकराती हैं, जिससे कर्तव्य विमुख होकर अधिकार प्राप्ति की चेष्ठा के परिणामस्वरूप ही विश्व को युद्ध की विभीषिकाओं का सामना करना पडता है !
नागरिकों के राष्ट्र के प्रति कुछ कर्त्तव्य निर्धारित हैं, इन्हीं कर्तव्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्र निर्मित होता है ! राष्ट्र की सुरक्षा का दयित्व नागरिकों का है ! यह भाव सिर्फ राष्ट्र तक सीमित नही हैं ! विश्व की सुरक्षा की कामना भी इससे जुडी हुयी है ! अपने गांव से लेकर शहर व राष्ट्र तक इस भावना का विस्तार होना चाहिए ! लेकिन एक अनुत्तरित प्रश्न फिर मन में उठता है यदि यह चेतना विश्व के शब्दों को एक सूत्र में बांधती है तो यह असुरक्षा किससे ? असुरक्षा उससे जो उग्र राष्ट्रवाद के कारण, कर्तव्य विमुख होकर अधिकार चेष्टा में संलग्न है ! उनके प्रति विद्रोह की ज्वाला को प्रदीप्त करना होगा, जिनके अकारण विश्व को दो बार विश्व युद्ध का संत्रस्त झेलना पड़ा है !
इसके अतिरिक्त प्राकृतिक विपदाएँ, बाढ़, अग्निकाण्ड, चक्रवात, भूकम्प आदि से सुरक्षा के लिए भी कर्तव्य निर्वहन की आवश्यकता है ! इससे लोकतंत्र में सत्ता का विकेंद्रीकरण होता है क्योंकि ‘लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा’ के सिद्धांतों पर आधारित है अत: इसमें प्रत्येक नागरिक को अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है ! कर्तव्यों की सजगता सत्ता लोलुप व्यक्तियों को निऱकुंश बनने से रोकती है जिससे उनकी स्वतंत्रता का हनन नहीं हो पाता ! वस्तुतः सुरक्षा का व्यापक अर्थ कर्तव्यों के पालन से है साथ ही दूसरों को भी अपने कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित करने से है !
प्रत्येक नागरिक को अपने देश अपनी मातृभूमि से लगाव स्वाभाविक ही है ! यह प्रेम विश्व के सभी आकर्षणों से बढ़कर है ! इस देश के प्रति उसके कुछ दायित्व हैं, यदि यह इन दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो वह राष्टीय नहीं कहला सकता ! राष्ट्र धर्म का अर्थ यह कदापि नहीं कि हम उसके सम्मान में कसीदे पढ़ते हैं वरन् विविध क्षेत्रों में कार्य करके राष्ट्र धर्म का निर्वाह कर सकते हैं !
प्रत्येक राष्ट्र की तस्वीर उस राष्ट्र के नागरिकों के चरित्र पर आधारित होती है अतः परिवार में अच्छे चरित्र की भावना का विकास किया जाना चाहिए, उनमें विश्व बंधुत्व की भावना का विकास किया जाना चाहिए इससे राष्ट्रीय एकता व अखण्डता सुदृढ होती है ! इसके विपरीत जो लोग धर्म, जाति, राष्ट्र या राज पद्धति के नाम पर अपने आपको शेष संसार से पृथक कर लेते हैं, वे मानव विकास में सहायता नहीं करते अपितु उसमें बाधा डाल रहे होते हैं ! राष्टीय कर्त्तव्य का निर्वाह सिर्फ सेना में भर्ती होकर नहीं किया जा सकता वरन् उपेक्षित दीन दुखियों, दलित जन, रोगी की सहायता करके भी हम राष्ट्र धर्म का निर्वाह का सकते हैं !
भारत प्रजातंत्रात्मक देश हैं जिसमें वास्तविक सत्ता जनता के हाथों में निहित है जो अपने मताधिकारों का उचित प्रयोग करके, जन-प्रतिनिधि के रुप में सत्यनिष्ठ तथा ईमानदार व्यक्ति का चुनाव करके देश को जातीयता, प्रांतवाद, भाषावाद से मुक्त करके, असामाजिक तत्वों से देश को बचाकर अपना कर्तव्य पालन कर सकती है ! आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति राष्ट्रीय कोष में अपना योगदान देकर कुछ हद तक आर्थिक सहायता दे सकता है ! समाज में व्याप्त कुरीतियों, जैसे- बाल विवाह, मद्यपान, अशिक्षा, अराजकता, काला बाजारी, चारित्रिक पतन, हिंसात्मक वातावरण आदि को दूर करना भी नागरिक कर्तव्य ही है ! परंतु इसके लिए सेवा की चेतना, लोक कल्याण की उत्कट भावना और समर्पण के गुणों की चेतना अपरिहार्य है !
इस प्रकार, जहाँ भी हो व जिस रूप में हो, हम अपने कार्य को ईमानदारी से तथा देश हित को सर्वोपरि मानकर करें ! आज जब विश्व के अधिकांश देश अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का सामना कर रहे हैं तब हमारा यह कर्त्तव्य बन जाता है कि हम इसकी सुरक्षा के लिए तत्पर हों तथा अधिकार प्राप्ति की कामना से मुक्त होकर कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित हों यही भावना समाज को भय मुक्त अनावरण में समेटेगी तथा राष्ट्र की आधारशिला को दृढ़ता प्रदान करेगी !