किसी भी वस्तु की “आवश्यकता” व्यक्ति को निरंतर उस वस्तु की तरह आकर्षित करती रहती है जैसे मनुष्य के जिंदा रहने के लिए रोटी की जरूरत है ! जिसे व्यक्ति बचपन से लेकर व्रद्धावस्था तक, जब तक जीवित रहता है उपभोग करता रहता है क्योंकि “रोटी” व्यक्ति की “आवश्यकता” है ! लेकिन जब व्यक्ति किसी वस्तु की आवश्यकता थोड़े समय के लिए ही महसूस करता है तो वह “आवश्यकता” नहीं “आवेग” है !
जिसे दुसरे शब्दों में “शौक” भी कहते हैं ! जैसे किसी “विशेष ब्रांड” की “मोटरसाइकिल या मोबाइल” प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के मन में “आवेग” उत्पन्न होता है और वह व्यक्ति उस वस्तु को प्राप्त करने के लिये उस समय सब कुछ करने को तैयार हो जाता है किंतु यदि सारे प्रयास के बाद भी वह वस्तु उसे उस समय प्राप्त नहीं होती है, तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति का उस वस्तु के प्रति आकर्षण कम होने लगता है और कुछ समय बाद उसका आकर्षण किसी अन्य वस्तु की तरफ हो जाने की वजह से वह पुरानी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा ही त्याग देता है ! यह जो स्थिति है इसको “शौक” कहते हैं !
समाज के अंदर प्रायः देखा जाता है कि कुछ लोग व्यवस्था परिवर्तन के लिए जो “आंदोलन” करना चाहते हैं } लेकिन ज्यादातर लोग ऐसा “आक्रोशवश आवेग” के प्रभाव में ही करते हैं ! धीरे धीरे आक्रोश शान्त हो जाता है और कुछ समय बाद वह व्यक्ति इसी “दुरव्यवस्था” को स्वीकार कर लेता है और उसी में जीने लगता है ! ऐसे लोग प्रायः अधिक से अधिक 5 से 7 वर्ष तक व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में सक्रिय रहते हैं ! लेकिन जब उनके मन के अनुकूल परिणाम नहीं निकलते हैं ! तो वह लोग आंदोलन के विचार को धीरे-धीरे त्याग देते हैं और जीवन निर्वाह के दूसरे कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं ! यह स्थिति लगभग 90% आवेगी आंदोलनकारियों की होती है !
शेष जो 10% आंदोलनकारी होते हैं उनमें से लगभग 7% लोग वर्तमान दुर्व्यवस्था में ही राजनीति का मार्ग अपना लेते हैं ! वह या तो राजनीतिज्ञों के साथ समझौता कर लेते हैं या उनका विरोध करके स्वयं सत्ता में पहुंचने का प्रयास शुरू कर देते हैं ! ऐसे लोग आंदोलन के पवित्र उद्देश्य से हटकर इस दुर्व्यवस्था में अपना “निजी हित तलाशने” लगते हैं !
शेष बचे 3% लोग जो दुर्व्यवस्था के प्रति अति संवेदनशील हैं ! वह निरंतर व्यवस्था की इन विकृतियों को दूर करने के प्रयास में पूरा का पूरा जीवन बतौर आंदोलनकारी निर्वाह करते हैं ! लेकिन जब इस त्याग के बाद भी आंदोलन का कोई परिणाम नहीं निकलता है ! तो 30 से 40 वर्ष तक निरंतर आंदोलन करने के बाद कल के प्रवाह से उनके शरीर में शिथिलता आ जाती है और वह समर्पित ईमानदार व्यक्ति “शक्ति के आभाव” में समाज से बहिष्कृत हो जाता है ! इस संघर्ष के दौरान उसका अपना परिवार भी उसका साथ नहीं देता है न ही बूढ़े होने पर उस शक्तिहीन व्यक्ति की कोई सेवा करता है ! जिसने जीवन भर समाज की सेवा की है ! ऐसे व्यक्तियों की वृद्धा अवस्था प्रायः बहुत कष्टकारी और उपेक्षित होती है !
हमें ऐसे राष्ट्रवादियों को भूलना नहीं चाहिए क्योंकि “शासन-सत्ता की निरंकुशता पर नियंत्रण” लगाने वाले यही मुट्ठी भर लोग हैं, जो सत्ता को उसकी मनमानी करने से रोकते हैं ! अतिसंवेदनशील आंदोलनकारी ही अपने पूरे जीवन को संघर्ष में निकाल कर बाकी “समाज को संरक्षण” प्रदान करते हैं ! ऐसे अतिसंवेदनशील आंदोलनकारी समाज में “सम्मान” के पात्र हैं ! निर्वाह योग्य सामाजिक व्यवस्था इन्हीं आंदोलनकारियों के दम पर टिकी है और यदि यह आंदोलनकारी समाज में बहिष्कृत और अपमानित होते हैं ! तो समाज को सत्ता की निरंकुशता और शोषण से कोई नहीं बचा सकता है !
ऐसे अतिसंवेदनशील आंदोलनकारियों के साथ यदि आप साथ चल नहीं सकते ! तो उन्हें दूर से ही सही तरह-तरह का सहयोग अवश्य प्रदान कीजिये ! जिससे वह एक संरक्षक की भूमिका में आपके समाज को को सत्ता के निरंकुश शोषण और अत्याचार से बचा सकेगे ! क्योंकि ऐसे व्यक्ति ने आंदोलन “शौक” के लिये नहीं बल्कि अपनी “सामाजिक जिम्मेदारी” समझ कर किया था ! वास्तव में वह व्यक्ति समाज में सम्मान के योग्य है !