सन् 1897 में श्री देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ‘‘दयानन्द चरित’’ था !
यह पुस्तक बंगला भाषा में लिखा था ! इसका अनुवाद सन् 2000 में 103 वर्ष पश्चात् बाबू घासी राम एम.ए., एल.एल.बी. ने हिन्दी में किया ! जिस पुस्तक के सम्पादक हैं डा.(प्रो.) भवानी लाल भारतीय ! इस पुस्तक में प्रष्ठ संख्या 216 में लिखा है कि
” आश्विन मास (आसौज महिने) की बदी एकादशी को दयानन्द को ठण्ड लग गई थी ! जिस कारण से उनका शरीर अस्वस्थ हो गया था ! इसलिये चौदह को रात्री में केवल दूध पीकर सो गये थे ! रात्री में उल्टियाँ होने लगी ! फिर डाक्टरों का आना आरम्भ हो गया !
लेकिन दवाईयों से कोई लाभ नहीं मिला, पेट का दर्द बढ़ता चला गया ! स्वांस लेना भी कठिनाई होने लगी ! इससे से स्पष्ट हुआ कि महर्षि दयानन्द की मृत्यु कांच या विष देने से नहीं बल्कि ठण्ड लगने और इंफेक्शन अर्थात संक्रमण से हुई थी !”
यदि दयानंद महान योगी तथा साधक थे तो फिर वह 40 दिनोँ तक अपने वस्त्रोँ मेँ टट्टी पेशाब करके तड़प-तड़प कर क्योँ मरा गये ? अपनी योग साधना से वह क्योँ अपने स्वास्थ्य को क्यों नहीं ठीक कर पाये !
एक और पुस्तक ‘‘श्रीमद्दयानन्द” की है ! सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधी सभा 3/5 महर्षि दयानन्द भवन नई
दिल्ली से प्रकाशित है ! उसके पेज नंबर 445 पर लिखा है कि
“महर्षि दयानंद का मल-मूत्र वस्त्रों में ही निकल जाता था ! दयानन्द को अतिसार (दस्त) लगे हुये थे !
कई बार सेवक ठाकुर भूपाल सिंह के हाथों पर ही मल-मूत्र निकल जाता था ! यहाँ पर मल-मूत्र के साथ खून निकलने का वर्णन नहीं है ! अत: यह सिद्ध होता है कि दयानन्द की मृत्यु ठण्ड लगने और इंफेक्शन अर्थात संक्रमण से हुई थी !
जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह के यहाँ नन्हीं नामक वेश्या द्वारा स्वामी जी के रसोइया कलिया उर्फ जगन्नाथ द्वारा उनके दूध में पिसा हुआ कांच या विष देने से नहीं हुई थी !