सभी कथावाचक बतलाते हैं कि रामायण समाज के हर वर्ग को जोड़ने का दिव्य ग्रंथ है !
यह कोई भी कथावाचक नहीं बतलाता है कि रामायण ने ही व्यक्ति के स्वतन्त्र चिंतन करने और अपनी राय प्रकट करने के संदर्भ में प्रतिबंध लगाने की शुरुआत की थी !
जिसकी पूरी कथा रामायण में इस प्रकार है !
राजा दशरथ ने जाबालि के यश और गुण से प्रभावित होकर उन्हें अपनी सभा में सलाहकार रख लिया था । जब राम वन गये । भरत उन्हें मनाने पहुंचे । साथ में जाबालि ऋषि भी थे । वह यथार्थवादी दर्शन को मानते थे ।
उन्होंने राम को समझाया – राम आपके बिना अयोध्या नगरी एक चोटी की नायिका बनकर रह गयी है । आप जब तक आओगे नहीं तब तक उस नायिका की दो चोटी नहीं बन सकती । ज्ञातव्य है कि शास्त्रों में दो चोटी बनाने वाली स्त्री को सुंदर कहा जाता है ।
जाबालि ने राम से कहा था – आपके पिता ने जो वचन दिया उसे भूल जाओ और अयोध्या लौट चलो। यहां कोई किसी का न बाप न किसी का बेटा है । राजा दशरथ के दिए गये वचन उनके साथ हीं चले गये । वह आपके पिता एक प्राकृतिक नियम के अंतर्गत बने थे ।
आप भी उसी नियम के अंतर्गत पिता बनोगे । इसमें किसी का कोई एहसान नहीं है । यह दुनिया एक सराय है । लोग आते हैं चले जाते हैं। आप इस सराय में रहते हुए सारे सुखों का उपभोग करो । वन में रहना आप जैसे राजा को शोभा नहीं देता ।
जाबालि ऋषि की इस तरह की सलाह को राम ने वेद विरुद्ध नास्तिकता से भरी हुई सलाह मानी और उनकी बातों को सुनकर राम कुपित हो गये ।
उन्होंने कहा – मुझे दुःख है कि मेरे पिता ने आप जैसे नास्तिक को अपनी सभा में रखा था । राजा जैसा आचरण करता है वैसा हीं आचरण प्रजा भी करती है ।
आज मैं अपने पिता का दिया गया बचन नहीं निभाऊंगा तो प्रजा क्या सोचेगी ? मैं कौन सा आदर्श प्रजा के सामने प्रस्तुत करुंगा ? कौन सा मुंह लेकर अयोध्या जाऊँगा ?
राम की डांट से क्षुब्ध हो जाबालि ऋषि वापस अयोध्या नहीं गये । वह वहीं रहकर किसी कंदरा में ध्यान करने लगे । भरत राम का खड़ाऊं लेकर अयोध्या लौट गये थे ।
जाबालि ऋषि ने बाद में मध्य भारत में जाकर एक शहर बसाया जिसे आज जबलपुर कहा जाता है ।
इस संदर्भ में रामायण के अयोध्या कांड सर्ग 110 श्लोक 33 व 34 पर ध्यान देना अति आवश्यक है।
जिसमें कहा गया है कि
अहं निन्दामि तत् कर्म कृतम् पितुः त्वाम् आगृह्णात् यः विषमस्थ बुद्धिम् चरन्तं अनय एवं विधया बुद्धया सुनास्तिकम् अपेतं धर्म पथात् !! 33 !!
तथा
यथा हि चोरः स तथा ही बुद्धस्तथागतं नास्तीक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तीके नाभि मुखो बुद्धः स्यातम् !! 34 !! (सर्ग 110 , वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड)”
अर्थात
इस प्रकार श्लोक 33 का अर्थ यहाँ इस प्रकार होगा–
“हे जाबालि ! मै अपने पिता के इस कार्य की निन्दा करता हूँ कि उन्होंने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ रखा !” (श्लोक 33)
जबालि को भगवान श्रीराम (श्लोक 33 में) उसके नास्तिक विचारों के कारण विषमस्थ बुद्धिम् एवं अनय बुद्धया शब्दों से परिभाषित करते हुए कहते हैं कि तुम वेद मार्ग से भ्रष्ट नास्तिक बुद्धि एवं अनय बुद्धि के व्यक्ति हो ! जिसे कुत्सित बुद्धि माना जाना चाहिये !
“जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार बुद्धिमान ज्ञानी तथागत अर्थात सब कुछ जान कर भी नास्तिक मत को बढ़वा देने वाले भी दण्डनीय है !
यदि इस कोटि के नास्तिक को यदि दंड दिलाया जा सके तो उसे चोर के समान दंड दिया जाना चाहिये !
परन्तु जो पकड़ के या वश के बाहर हो तो उस नास्तिक से आस्तिक जन कभी वार्तालाप न करें !”
इस तरह राम की ओट में वैष्णव लेखकों ने यह अपना स्पष्ट मत रखा है कि जो व्यक्ति वैष्णव राजाओं के सिद्धांत से सहमत नहीं है या वेदों का अनुगमन नहीं करता और अपनी एक स्वतंत्र सोच रखता है ! उस व्यक्ति को समाज से सहयोग नहीं मिलना चाहिए !
यहीं से समाज का विकास रुक गया क्योंकि समाज ने स्वतंत्र सोच रखने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहित करना बंद कर दिया और जब सोच सिद्धांतों में कैद हो जाती है, तो समाज विनाश की ओर स्वतः ही बढ़ने लगता है !!