क्या आप जानते हैं कि प्राचीन काल में धर्म का अर्थ चक्र किस तरह भ्रमण करता था ! आखिर वह क्या वजह थी कि पूरी दुनिया का सोना भारत में इकट्ठा होता था और भारत पूरी दुनिया का पेट भरता था ! भारत का ज्ञान विज्ञान और समाज सभी कुछ उन्नति की पराकाष्ठा पर था !
भारत के अभूतपूर्व विकास और सफलता का एक मात्र रहस्य था भारत के सनातन धर्म का व्यवस्थित अर्थ चक्र ! जिसने भारत को विश्व का पालक ही नहीं बल्कि भारत को विश्व का ज्ञान दाता विश्व गुरु भी बना दिया था ! क्योंकि यह एक धूल सकते हैं कि जब धन सकारात्मक विचारधारा वाले व्यक्ति के पास होता है तो उस धन का सदुपयोग होता है पूरी दुनिया में अमन चैन शांति होती है प्राकृतिक संसाधनों का समुचित बंटवारा होता है और सभ्यताएं विकास करती है !
किंतु जब वही धन धूर्त और मक्कारों के नियंत्रण में होता है, तो पूरी दुनिया में अफरा-तफरी मच जाती है ! बार बार युद्ध होते हैं और मानवता बेहाल होकर दम तोड़ने लगती है ! धर्म का नामोनिशान मिट जाता है और सभी जगह अन्याय, अज्ञात और अधर्म का साम्राज्य स्थापित हो जाता है !
इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि धन पर विवेकशील व्यक्तियों का नियंत्रण होना चाहिये ! इसीलिए राजा को विवेकशील और धर्म परायण बनाए रखने के लिए प्रत्येक शासन व्यवस्था में धर्म गुरु का स्थान राजा से भी ऊपर था ! जो राजा को अपने निर्णय बदलने के लिए बाध्य कर सकता था और जो राजा धर्मगुरु के धर्म अनुसार सिद्धांतों से सहमत नहीं होता था धर्मगुरु उस राजा को ही बदल देता था ! तभी हमारी सभ्यता विश्व की सर्वश्रेष्ठ शिक्षित और धनाढ्य सभ्यता थी !
धर्म के अर्थ चक्र में प्रत्येक 25 गांव के ऊपर एक मंदिर हुआ करता था ! जो उन 25 गांव के सहयोग से चलता था ! उन गांवों के सभी तीज त्यौहार उत्सव आदि को संचालित करने का दायित्व इसी मंदिर पर होता था इसके अतिरिक्त प्रत्येक अमावस्या पूर्णिमा माह की दोनों एकादशी तथा प्रदोष के कार्यक्रम को भी यह मंदिर संचालित करता था !
धर्म गुरुओं के सभी निर्देश, राजा के सभी आदेश एवं न्यायालयों के सभी निर्णयों की घोषणा इन्हीं मंदिरों के परिसर से की जाती थी ! जिसमें लगभग हर व्यक्ति उत्सव के समय उपस्थित होता था !
यह संवाद व्यवस्था इतनी द्रढ थी कि मात्र एक सूचना पर इस मंदिर के माध्यम से समस्त साम्राज्य में प्रत्येक नागरिकों तक धर्म राजा और न्यायालय तीनों के निर्देश पहुंच जाते थे ! जिनका पालन करना सभी के लिए अनिवार्य होता था और यदि कोई व्यक्ति इन निर्देशों की अवहेलना करता था तो तत्काल राजा द्वारा उसके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाती थी जिससे पूरे समाज में अनुशासन व्याप्त था ! लोग अपनी आय का दशमांश इन्हीं मंदिरों को दान कर दिया करते थे !
यह मंदिर गांव-गांव में गुरुकुलों का भी संचालन किया करते थे ! जहां पर सभी वर्ग के, सभी व्यक्तियों को नि:शुल्क समान रूप से शिक्षा और संस्कार को प्रदान करने की श्रेष्ठतम व्यवस्था हुआ करती थी ! जो समाज को बचपन से ही संस्कारित करता था !
इन मन्दिरों में यात्रियों के लिये सभी प्रकार की सुविधा संपन्न नि:शुल्क आश्रय स्थल, औषधालय, अनाथालय तथा राजा के जासूसी तथा सूचना संवाद केंद्र हुआ करते थे !
सभी कार्यक्रमों और गुरुकुलों आदि की व्यवस्था के उपरांत उन मंदिरों में बचा हुआ धन तीर्थों को दे दिया जाता था ! जिससे संपूर्ण भारत में एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ पर भ्रमण करने वाले नागरिकों को सभी तरह की सुविधाएं निशुल्क प्रदान की जाती थी ! जिससे समाज का हर व्यक्ति और भारत की हर संस्कृति के लोग उन्हें करीब से जान और समझ सकते थे ! जिससे समाज को नये-नये व्यापार और व्यवसाय के अवसर प्रदान होते थे !
संस्कृतियों के तालमेल से सामाजिक संघर्ष खत्म हो जाता था और वर्ग संघर्ष का तो प्रश्न ही नहीं उठता था ! संपन्न वर्ग वर्ग का व्यक्ति समाज के निम्नतम वर्ग के व्यक्ति के कष्ट पीड़ा के कारणों को समझ कर उन्हें दूर करने का प्रयास करता था ! इसी तरह समाज का निम्नतम वर्ग का व्यक्ति भी श्रेष्ठतम वर्ग के व्यक्ति के संपर्क में आकर अपने अंदर उत्तरोत्तर विकास करता था ! जिससे समाज का व्यवस्थित विकास होता था !
इसीलिए अनादि काल से प्रत्येक सनातन धर्मी को तीर्थ यात्रा करना अनिवार्य होता था फिर वह चाहे बद्रीनाथ, केदारनाथ की कठोर यात्रा ही क्यों न हो या फिर रामेश्वरम, पुरी या द्वारिका की सहज यात्रा ही क्यों न हो ! इसके अलावा क्षेत्रीय तीर्थों का भी बहुत महत्व था ! जो लगभग हर 500 से 800 किलोमीटर के मध्य स्थापित किये गये थे ! जहां पर तरह-तरह के सभ्यता संस्कृति के लोग आकर अपने अपने क्षेत्र की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, कला का प्रदर्शन किया करते थे ! जिससे समाज के दूरदराज के लोगों को प्रेरणा मिलती थी !
सभी तीर्थों का बचा हुआ धन मठों को दे दिया जाता था ! जिन मठों में चिंतक, विचारक, तपस्वी, समाज के भ्रमणशील विश्लेषक तथा सनातन धर्म का मौलिक आधार स्तम्भ धर्मगुरु अपने धर्म दंड के साथ निवास किया करते थे !
यदि समाज में या किसी मंदिर में कोई व्यवस्था व्याप्त होती थी तो उसे नियंत्रित करने के लिए सर्वप्रथम यह धर्म गुरु धर्म सभा आयोजित करते थे जिसमें समस्या के मूल कारणों पर विचार होता था और भविष्य में उस तरह की समस्या दोबारा खड़ी ना हो उसके निवारण के लिए स्थाई उपचार खोजे जाते थे तथा वर्तमान में जो समस्या व्याप्त होती थी उसके उसको ठीक करने के लिए राजा को सूचना भेजी जाती थी और राजा धर्मगुरु के निर्देश पर उस अव्यवस्था को तुरंत नियंत्रित करता था !
जिससे राजमार्ग सुरक्षित होते थे ! समाज में हत्याएं नहीं होती थी ! सभी की संपत्ति सुरक्षित होती थी ! बहू बेटियों की इज्जत लूटने वाला कोई नहीं होता था ! और यदि कोई व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध कोई अपराध कर देता था तो उसे सार्वजनिक रूप से बिना किसी विलंब के इतना कठोर दंड दिया जाता था कि समाज का दूसरा व्यक्ति उस तरह के अपराध को करने का साहस इकट्ठा न कर सके ! यही धर्म की व्यवस्था थी जिससे भारत का विकसित और शिक्षित समाज संचालित होता था !
और फिर मठों का बचा हुआ धन चार सनातन व्यवस्था के अंश रहे कुंभ मेला में प्रयोग किया जाता था ! जिन कुंभ के कार्यक्रमों को आयोजित करने के लिए समाज का बहुत बड़ा वर्ग श्रमदान करता था ! जिसके बदले व्यक्ति को कुंभ व्यवस्थापक द्वारा धन दिया जाता था ! इस तरह से कुंभ के द्वारा समाज से प्राप्त धर्म चक्र का बचा हुआ धन पुनः समाज को प्रसाद स्वरूप में बांट दिया जाता था !
यही सनातन धर्म मैं धर्म चक्र के धन की वितरण व्यवस्था थी जिससे सनातन धर्म अनादि काल से जीवित और संचालित था तथा समाज भी कामना विहीन और अपराध विहीन अवस्था में चल रहा था ! जिसे विदेशी आक्रांता ने छल और कपट के द्वारा तलवार और कानून के जोर से नष्ट कर दिया ! जिसे पुनः स्थापित करने की अत्यंत आवश्यकता है ! क्योंकि धर्म ही हमारी रक्षा कर सकता है लेकिन इसके लिए हमें धर्म की रक्षा करना आवश्यक है !!