शैव जीवन शैली में संन्यास का सीधा सा तात्पर्य जो भगवान के बनाये हुये संसार को में एक न्यासी के रूप में अपना जीवन यापन करता हो ! अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर की सृष्टि ईश्वर ही चला रहा है, हम तो मात्र उस सृष्टि में अपना अस्थाई समय ईश्वर के निर्देश की प्रतीक्षा में काट रहे हैं !
इसको दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर की जो इच्छा है, हम उस इच्छा के साथ ही ही अपना जीवन जी रहे हैं ! हमारा न तो कोई निजी सुख है और न ही दुःख है ! इस तरह का भाव रखने वाला व्यक्ति ही संन्यासी हो सकता है !
किंतु वैष्णव जीवनशैली ने संन्यासियों ने इस परिभाषा को विकृत कर दिया ! वैष्णव जीवन शैली में संन्यासी का तात्पर्य ऐसा व्यक्ति जो ईश्वर का नहीं बल्कि मात्र वैष्णव देवी देवताओं (आक्रान्ताओं) और वैष्णव जीवन शैली का प्रचार प्रसार करता हो !
अर्थात ऐसा व्यक्ति जिसने किसी विशेष गुरु से दीक्षा लेकर अपना संपूर्ण जीवन वैष्णव जीवन सिद्धांतों के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित कर दिया हो और जो समाज में घूम घूम कर गैर वैष्णव को अपने तर्कों से संतुष्ट कर के वैष्णव बनने के लिए वैचारिक रूप से तैय्यार करता हो !
इसी परंपरा को कमोवेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपनाया ! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने संगठन को विस्तार देने के लिए पूर्णकालिक व्यक्तियों की नियुक्ति की, जो समाज में घूम घूम कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उद्देश्य से लोगों को अवगत कराते थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हर तरह से सफल बनाने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देते थे !
किंतु बढ़ती हुई तकनीकी के साथ विपरीत परिस्थितियों में गुरुकुलों के समाप्त हो जाने के कारण वैष्णव सन्यासियों का प्रभाव धीरे-धीरे समाज में खत्म हो गया और अंग्रेजों द्वारा निर्मित विद्यालयों में चौक डस्टर की पढ़ाई शुरू हो गई ! जिसने कांग्रेस और संघ दोनों को ही पूर्णकालिक कार्यकर्ता बहुत बड़ी मात्रा में दिये !
किंतु अब शिक्षा की तकनीकी में परिवर्तन हो गया है ! अब व्यक्ति न तो गुरुकुल में पढ़ रहा है और न ही चौक डस्टर से पढ़ रहा है, बल्कि इंटरनेट के आ जाने के कारण अब व्यक्ति वैश्विक शिक्षा पद्धति से शिक्षा ग्रहण कर रहा है !
उसी का परिणाम है कि अब न तो वैष्णव मठ-मंदिरों को सन्यासी मिल रहे हैं और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समर्पित पूर्णकालिक कार्यकर्ता ! सब इस समस्या के अपने-अपने कारण गिनाते हैं किंतु वास्तविकता यह है कि वैश्विक तकनीकी के आ जाने के कारण अब व्यक्ति किसी भी तरह से मूर्खता में फंसने के लिए तैयार नहीं है !
आज तकनीकी के विस्तार के साथ साथ व्यक्ति की अपने जीवन के प्रति दृष्टि भी बदल रही है ! जिस कारण संन्यास की परिभाषा भी बदल रही है ! ओशो ने लगभग 50 साल पहले संन्यास में बहुत परिवर्तन करने की कोशिश की और उसे “नव संन्यास” नाम दिया ! जिसके लिए ओशो को परंपरागत वैष्णव ठेकेदारों द्वारा बहुत विरोध का सामना करना पड़ा !
किंतु ओशो के इस विचार के अब 50 वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद मैं यह समझता हूं कि संन्यास शब्द पर समाज में पुनः विचार किया जाना चाहिए ! अब आवश्यकता न तो परंपरागत वैष्णव सन्यासियों की है और न ही किसी तरह के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की ! परिपक्व अवस्था के कारण ओशो का “नव संन्यास” भी अब फीका हो गया है !
आज ओशो के नव सन्यासी व्यवसायी बन गये हैं ! वह भी अपने को अपनी कामना और वासना से दूर नहीं रख पाये, इसलिए यह संगठन भी अब लोक कल्याण के लिए उपयोगी नहीं रह गया है !
इस समय के विकसित विचारधारा, दर्शन, जीवनशैली, तकनीकी, आदि सभी विषयों पर विचार करके मैं यह समझता हूं कि इस समय समाज को दृष्टा सन्यासियों की आवश्यकता है ! जो अपने किसी भी सामाजिक क्रम को नहीं छोड़ें बिना और समाज में रहकर अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए अपने को साक्षी तथा दृष्टा भाव में रहकर संन्यासी के रूप में स्वयं भी आप विकास करेंगे और संसार तथा समाज का भी विकास करेंगे !
यदि दृष्टा संन्यास के विषय में और अधिक जानकारी चाहते हैं तो कृपया कमेंट में लिखें ! जिससे मैं इस विषय पर विस्तार से अपनी बात आपके समक्ष रख सकूं !!