भाग्य की शक्ति एक ऊर्जा है | जो व्यक्ति के कार्य करते समय कार्य में किए गए “कामनाओं” से उत्पन्न होती है और वह ऊर्जा “गुप्त चित्त” में “संस्कारों” के रुप में संग्रहित होती रहती है | इसी “गुप्त चित्त” के अंदर “कामनाओं” की जो ऊर्जा संस्कारों के रूप में संग्रहित होती है |
उसे मृत्यु के समय जब जीवात्मा शरीर छोड़ कर जाती है | तब वह उस समय सूक्ष्म रूप में मन, बुद्धि और संग्रहित संस्कार को अपने साथ लेकर शरीर के बाहर निकल जाती है और फिर जब वह जीवात्मा पुनः शरीर धारण करती है | तो जीवात्मा अपने साथ पूर्व के लाये हुए मन-बुद्धि और संस्कारों को पुनः सक्रिय करती है | जिससे पूर्व के “कामनाओं की संग्रहित ऊर्जा” जो वर्तमान समय में उस व्यक्ति के “भाग्य के रूप में विकसित” होती है | इसी के प्रभाव में वह “कामनाओं की संग्रहित ऊर्जा” अर्थात “भाग्य” प्रकृति के साथ सहयोग या विरोध करके उस व्यक्ति के जीवन को सुखी या दुखी बनती है |
इसी सुख या दुख की उपस्थिति को संसार में “भाग्य का भोग” कहते हैं | अत: प्रायः यह कहा जाता है कि “भाग्य में लिखा हुआ भोग (कष्ट) व्यक्ति को भोगना ही पड़ता है |” और यह सत्य भी प्रतीत होता है कि व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के संचित “कर्मफल की कामना” के अनुसार अपने “संस्कारों के रूप में जो ऊर्जा” पूर्व जन्म से लेकर आया है उसे वह अपने मन और बुद्धि के सहयोग से भोगता है | यही प्रकृति का अटल विधान है | जिससे “अवतार रूप” लेने वाले स्वयं साक्षात “भगवान” भी मुक्त नहीं हैं | इसका स्पष्ट उदाहरण भगवान राम और भगवान श्री कृष्ण के जीवन की घटनाओं में देखा जा सकता है |
किंतु हमारे ऋषि मुनियों ने “भाग्य के बदलने को लेकर गहन शोध” कार्य किये हैं और उन्होंने यह पाया है कि यदि व्यक्ति सही पद्धति से आराधना, उपासना, अनुष्ठान आदि करे, तो वह अपने संस्कारों में परिवर्तन कर सकता है और संस्कारों में परिवर्तन करने से व्यक्ति की मन और बुद्धि भी परिवर्तित हो जाती है | जिससे व्यक्ति अपने पूर्व के नकारात्मक भाग्य की ऊर्जा को सकारात्मक भाग्य की ऊर्जा में परिवर्तित कर सकता है | इसके लिए कुछ अत्यंत गूढ और गहन प्रक्रिया और सिद्धांतों की व्याख्या हमारे उपनिषद् आदि शास्त्रों में की गई है |
हमारे विद्वान पूर्वज ने इन्हीं सिद्धांतों पर व्यवहारिक अमल करके प्रकृति की व्यवस्था को ही बदलने के लिये अनेक उदाहरण हमारे पौराणिक शास्त्रों में वर्णित किए हैं | जिससे प्रेरणा लेकर हमें वर्तमान समय में सही पद्धति से इन गहन और गूढ सिद्धांतों का व्यावहारिक प्रयोग करके अपने भाग्य की नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करना चाहिए | यही पुरुषार्थ का सही उपयोग है |
इसके लिए “सनातन ज्ञान पीठ” समय-समय पर अपने “साधना शिविर” आयोजित करते रहते हैं और इन शिवरों में लोगों को “सकारात्मक भाग्य के निर्माण पद्धति, भाग्य के संचालन पद्धति एवं भाग्य के परिणाम भोग पद्धति तथा भाग्य में परिवर्तन के सिद्धांतों” का व्यवहारिक परीक्षण दिया जाता है | जिससे बहुत बड़ी संख्या में लोग लाभांवित हुए हैं और लोगों ने अपने दुर्भाग्य की नकारात्मक ऊर्जा को साधना, उपासना और अनुष्ठान आदि के द्वारा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित कर दिया है | जिससे आज वह लोग सौभाग्य के साथ अपना सांसारिक जीवन निर्वहन सुखपूर्वक कर रहे हैं |
इस शोध कार्य में सनातन ज्ञानपीठ के “संस्थापक श्री योगेश कुमार मिश्र” ने अपने जीवन के कई वर्षों तक गहन शोध कार्य किये हैं तथा उनकी प्रयोग विधि अपनाकर उनके परिणामों का विश्लेषण भी किया है |