शव को जलाने की प्रथा वैष्णव की देन है ! जानिये पूरा इतिहास : Yogesh Mishra

विश्व की विभिन्न संस्कृति, सभ्यता और धर्म में मृतकों के शव के साथ साथ किये जाने वाले व्यवहार कई प्रकार के चलन में हैं ! जैसे शव को –
1.जलाना
2. दफनाना
3. ममी बनाकर रखना
4. उबालकर कंकाल बनाना
5. गुफा में रखना
6. जल में प्रवाहित कर देना
7. पशु-पक्षियों के लिए छोड़ देना आदि आदि !

मृतकों को जलाने की प्रथा वैष्णव लोगों ने शुरू की थी ! इसके लिये धर्म का आश्रय लिया गया और गरुण पुराण में विधिवत् आत्मा की यात्रा का विज्ञान विकसित किया गया ! शव के जलाने को वैष्णव सभ्यतावश दाह-संस्कार या अग्नि-संस्कार कहते हुये सम्मानित विधा बतलाने लगे !

तर्क दिया गया कि शव को जलाने से आत्मा की देह के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है और इससे पृथ्वी के पर्यावरण को भी ‍नुकसान नहीं पहुंचता है ! इस कर्म से व्यक्ति की देह पंचतत्व में पूर्णत: लीन हो जाती है !
जब कि सत्य कुछ और था जब वैष्णव ने विश्व की सभी दानव, दैत्य, शैव, गन्धर्व, यक्ष, रक्ष, किन्नौर, नाग, रूद्र, गरुण आदि आदि संस्कृतियों को मिटाकर एकमात्र वैष्णव संस्कृति को भी समस्त विश्व में लागू करने का अभियान चलाया, तब उनका अनेक संस्कृतियों को मानने वालों के साथ भयंकर युद्ध होने शुरू हो गये !

युद्ध में क्योंकि तकनीक रूप से वैष्णव संपन्न थे अतः प्राय: युद्ध वैष्णव के पक्ष में ही जीता जाता था ! ऐसी स्थिति में अन्य संस्कृतियों के योद्धा जब रणभूमि में मरते थे ! तो उन संस्कृतियों को मानने वाले उस योद्धा के शव को विभिन्न पध्यतियों से सुरक्षित रखकर उसकी पूजा अर्चना करते थे !

क्योंकि उनका यह मानना था कि हमारी संस्कृति का योद्धा ईश्वर का अंश है और इसने मुझे विपत्ति से बचाने के लिए अपना जीवन दान कर दिया ! ऐसी स्थितियों में गैर वैष्णव संस्कृति को मानने वाले लोग अपने योद्धाओं के शवों को विभिन्न पद्धतियों से सुरक्षित रखकर उनके प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण बनाए रखते थे !

जिससे वैष्णव संस्कृति को मानने वालों के विरुद्ध पृथ्वी पर एक बहुत बड़ा विद्रोही वातावरण बन रहा था ! अतः वैष्णव विचारकों ने माना कि यदि किसी तरह इन गैर वैष्णव शवों को सुरक्षित रखने के स्थान पर आग में जलाकर नष्ट करने की परंपरा शुरू करवा दी जाये तो कुछ समय बाद समाज के मानस पटल से इन गैर वैष्णव राजाओं और योद्धाओं की याद भी मिट जाएगी !

इसी परंपरा के तहत वैष्णव लोगों ने गैर वैष्णव संस्कृतियों को मानने वालों को बाध्य किया कि वह अपने शवों को जला दें और उन्हें ऐसा न करने पर धर्म के अनुसार दंडित किया जाएगा ! जिसके लिये धर्मगुरुओं के द्वारा कठोर दण्ड का विधान बनाया गया !

धीरे धीरे जब युद्ध के भय से वैष्णव समाज का प्रभाव पूरी पृथ्वी पर फैला तो शवों को जलाने की परंपरा वैष्णव शासित राजाओं द्वारा समाज में शुरू करवाई गई ! जिसे दूसरी संस्कृति के मानने वाले लोगों को भी अपनाना पड़ा और कालांतर में यह माना जाने लगा कि जो व्यक्ति शवों को जलाता नहीं है वह अपने पूर्वजों की आत्माओं को कष्ट देता है इसलिए शव को जला देना ही श्रेष्ठ है ! जैसे पाकिस्तान में रहने वाले 80 प्रतिशत हिंदू समाज और शासन के डर से हिन्दू शवों को जलाते नहीं बल्कि इस्लाम परम्परा के अनुसार दफन करते हैं !

शैव परम्परा को मानाने वाले हिंदुओं के कई समाज ऐसे हैं जो अपने मृतकों को आज भी दफनाते हैं ! उदाहरण के लिए गोसाईं, नाथ और बैरागी समाज के लोग अपने मृतकों को समाधि देते हैं ! जलाते नहीं ! बौद्धों में भी जलाने और दफनाने दोनों की ही परंपरा है ! मिस्र में शवों को ममी बनाकर रख लिया जाता था ! ये शव लगभग 3,500 साल पुराने माने जाते हैं ! ये शव आज भी इस बात के गवाह हैं कि शवों को संलेपन द्वारा ममी बनाकर इस धारणा के साथ ताबूत में बंद कर दफना दिया जाता था !

ऐसा सिर्फ मिस्र में ही नहीं बल्कि श्रीलंका, चीन, तिब्बत और थाइलैंड में भी किया जाता रहा है। चीन और तिब्बत में आज भी कई हजार वर्ष पुरानी प्राचीन ममियां मौजूद हैं ! इजराइल और इराकी सभ्यता में लोग अपने मृतकों को शहर के बाहर बनाई गई एक गुफा में रख छोड़ते थे, जिसे बाहर से पत्थर से बंद कर दिया जाता था।

पारसियों में मृतकों को न तो दफनाया जाता था और न ही जलाया जाता था। पहले वे शव को खुले स्थान पर रख आते थे और आशा करते थे कि उनके मृत परिजन गिद्ध का भोजन बन जाएं। हिन्दुओं के साधु समाज में समाधि देने की परंपरा प्रचलित थी, तब भी अलग-अलग समाधि स्थल नहीं होते थे। कुछ साधु तो हिमालय की किसी गुफा में जाकर अपनी देह त्याग देते थे। इसके अलावा वैष्णव हिंदुओं में बच्चों को दफनाए जाने का चलन आज भी है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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