tभारतीय स्थापत्य कला व शिल्पशास्त्रों के अनुसार मंदिरों विशेषत: हिंदू मंदिरों की तीन मुख्य शैलियाँ हैं –
नागर शैली : मुख्यत: उत्तर भारतीय शैली
द्रविड़ शैली : मुख्यत: दक्षिण भारतीय शैली
वेसर शैली : नागर-द्रविड़ मिश्रित मुख्यत: दक्षिण-पश्चिमी भारतीय शैली
नागर शैली से तात्पर्य वैष्णव वास्तु पद्धति के अनुसार निर्मित मंदिर से है क्योंकि वैष्णव नगरीय जीवन पद्धति के संस्थापक, संरक्षक एवं पोषक थे ! अत: अपने साथ जब यह भारत आये तब मंदिरों का निर्माण नहीं होता था किन्तु कलांतर में गौतम बुद्ध के बाद जब भारत में मन्दिर निर्माण का दौर शुरू हुआ तब वैष्णव ने अपनी विशिष्ट मन्दिर निर्माण पध्यति विकसित की ! क्योंकि वैष्णव का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक था इस लिये इस तरह के विशिष्ट आकार के मन्दिर उत्तर भारत में अधिक देखने को मिलते हैं !
ठीक इसी तरह द्रविड़ पद्धति के मंदिरों से तात्पर्य नगरीय जीवन शैली के विपरीत प्राकृतिक जीवन पद्धति के अनुसार जीवन निर्वाह करने वाले भगवान शिव के उपासक ! अर्थात शैवों के द्वारा निर्मित मन्दिरों का वास्तु वैष्णव से सर्वथा भिन्न द्रविड़ शैली के मन्दिर कहलाते हैं !
कालांतर में समय व संस्कृति भेद के साथ इनमें भी अनेक भेद व मिश्रण हुये हैं ! इसीलिये इन मिश्रित वास्तु शैलियों के मंदिरों को वेसर शैली के मन्दिरों का नाम दिया गया !
नागर शैली के मन्दिर
‘नागर’ शब्द नगर से बना है ! सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इन्हे नागर की संज्ञा प्रदान की गई ! नागर शैली की बहुलता मुख्यतः उत्तर व मध्य भारतीय परिक्षेत्र में है ! नागर शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत माला तक विशेषत: नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक देखा जा सकता है ! यह कहीं-कहीं अपनी सीमाओं से आगे भी विस्तारित हो गयी है !
वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मंदिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है ! विकसित नागर मंदिरों में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं ! एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है !
नागर वास्तुकला में वर्गाकार योजना के आरंभ होते ही दोनों कोनों पर कुछ उभरा हुआ भाग प्रकट हो जाता है जिसे ‘अस्त’ कहते हैं ! इसमें मूर्ति के गर्भगृह के ऊपर पर्वत-शृंग जैसे शिखर की प्रधानता पाई जाती है ! कहीं चौड़ी समतल छत के ऊपर उठती हुई शिखा सी भी दिख सकती है ! माना जाता है कि यह शिखर कला उत्तर भारत में सातवीं शताब्दी के पश्चात् अधिक विकसित हुई. कई मंदिरों में शिखर के स्वरूप में ही गर्भगृह तक को समाहित कर लिया गया है !
‘नागर’ शब्द नगर से बना है ! सर्वप्रथम नगर में निर्माण होने के कारण इसे नागर शैली कहा जाता है !
यह संरचनात्मक मंदिर स्थापत्य की एक शैली है जो हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक के क्षेत्रों में प्रचलित थी !
इसे 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में मौजूद शासक वंशों ने पर्याप्त संरक्षण दिया !
नागर शैली की पहचान-विशेषताओं में समतल छत से उठती हुई शिखर की प्रधानता पाई जाती है ! इसे अनुप्रस्थिका एवं उत्थापन समन्वय भी कहा जाता है !
नागर शैली के मंदिर आधार से शिखर तक चतुष्कोणीय होते हैं !
ये मंदिर उँचाई में आठ भागों में बाँटे गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- मूल (आधार), गर्भगृह मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवार), कपोत (कार्निस), शिखर, गल (गर्दन), वर्तुलाकार आमलक और कुंभ (शूल सहित कलश) ! इस शैली में बने मंदिरों को ओडिशा में ‘कलिंग’, गुजरात में ‘लाट’ और हिमालयी क्षेत्र में ‘पर्वतीय’ कहा गया !
द्रविड़ शैली के मन्दिर
यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है ! तमिलनाडु के अधिकांश मंदिर इसी श्रेणी के हैं ! इसमें मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है, जिसमें क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं ! शिखर के शीर्ष भाग पर आमलक व कलश की जगह स्तूपिका होते हैं ! इस शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं ! प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मंदिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं ! परिसर में कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होता है ! प्रागंण का मुख्य प्रवेश द्वार ‘गोपुरम्’ कहलाता है ! प्रायः मंदिर प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ का भी विधान होता है.
कृष्णा नदी से लेकर कन्याकुमारी तक द्रविड़ शैली के मंदिर पाए जाते हैं !
द्रविड़ शैली की शुरुआत 8वीं शताब्दी में हुई और सुदूर दक्षिण भारत में इसकी दीर्घजीविता 18वीं शताब्दी तक बनी रही !
द्रविड़ शैली की पहचान विशेषताओं में- प्राकार (चहारदीवारी), गोपुरम (प्रवेश द्वार), वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भगृह (रथ), पिरामिडनुमा शिखर, मंडप (नंदी मंडप) विशाल संकेन्द्रित प्रांगण तथा अष्टकोण मंदिर संरचना शामिल हैं !
द्रविड़ शैली के मंदिर बहुमंजिला होते हैं !
पल्लवों ने द्रविड़ शैली को जन्म दिया, चोल काल में इसने उँचाइयाँ हासिल की तथा विजयनगर काल के बाद से यह ह्रासमान हुई !
चोल काल में द्रविड़ शैली की वास्तुकला में मूर्तिकला और चित्रकला का संगम हो गया !
यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर (चोल शासक राजराज- द्वारा निर्मित) 1000 वर्षों से द्रविड़ शैली का जीता-जागता उदाहरण है !
द्रविड़ शैली के अंतर्गत ही आगे नायक शैली का विकास हुआ, जिसके उदाहरण हैं- मीनाक्षी मंदिर (मदुरै), रंगनाथ मंदिर (श्रीरंगम, तमिलनाडु), रामेश्वरम् मंदिर आदि !
वेसर शैली के मन्दिर
नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर शैली की संज्ञा दी गई है ! वेसर शब्द कन्नड़ भाषा के ‘वेशर’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- रूप. नवीन प्रकार की रूप-आकृति होने के कारण इसे वेशर शैली कहा गया, जो भाषांतर होने पर वेसर या बेसर बन गया.
यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर जैसा होता है ! इस शैली के मंदिरों की संख्या सबसे कम है. इस शैली के मंदिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं ! कर्नाटक व महाराष्ट्र इन मंदिरों के केंद्र माने जाते हैं ! विशेषत: राष्ट्रकूट, होयसल व चालुक्य वंशीय कतिपय मंदिर इसी शैली में हैं !
उक्त शैलियों के सामान्य अंतर को हम इस तालिका व चित्र में भी देख सकते हैं !
नागर और द्रविड़ शैलियों के मिले-जुले रूप को बेसर शैली कहते हैं ! इस शैली के मंदिर विंध्याचल पर्वत से लेकर कृष्णा नदी तक पाए जाते हैं ! बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं ! बेसर शैली के मंदिरों का आकार आधार से शिखर तक गोलाकार (वृत्ताकार) या अर्द्ध गोलाकार होता है ! बेसर शैली का उदाहरण है- वृंदावन का वैष्णव मंदिर जिसमें गोपुरम बनाया गया है ! गुप्त काल के बाद देश में स्थापत्य को लेकर क्षेत्रीय शैलियों के विकास में एक नया मोड़ आता है ! इस काल में ओडिशा, गुजरात, राजस्थान एवं बुंदेलखंड का स्थापत्य ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है ! इन स्थानों में 8वीं से 13वीं सदी तक महत्त्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण हुआ ! इसी दौर में दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, राष्ट्रकूटकालीन और चोलयुगीन स्थापत्य अपने वैशिष्ट्य के साथ सामने आया !
इनके अतिरिक्त हिमालय में हिमाचल, उत्तराखंड में अपनी पहाड़ी शैली प्रमुख है, तो पूर्वोत्तर में बहुत अलग पूर्वोत्तरीय शैली. इसी प्रकार राजस्थान में अनेक मध्यकालीन मंदिरों में राजपूताना शैली का प्राचुर्य या मिश्रण है, तो आधुनिक काल में ग्रीक-रोमन या यूरोपीय शैली का भी मिश्रण मिल जाता है !