पुरी पीठ के शंकराचार्य श्री निश्चलानंद सरस्वती जी ने अभी हाल में अपना मत दिया है कि अल्ल और अल्ला शब्द कई बार आर्ष आदि ग्रंथों में मिला है !
जिसपर मेरे मन में भी इस विषय पर कुछ विचार रखने की इच्छा हुई ! मेरा मत है कि “ल्ल” शब्द का अर्थ शक्तिहीन होता है ! ल्ल के पूर्व “अ” वर्ण आने से अल्ल हो जाता है ! जिसका अर्थ होता है ! जो शक्तिहीन न हो, अर्थात् शक्तिमान् हो या सर्व शक्तिमान हो !
अल्ल में टाप् प्रत्यय लगाने से अल्ला हो जाता है ! किन्तु अल्ल में जब तक टाप् प्रत्यय नहीं लगता तब वह पुलिंग के लिये प्रयुक्त होता है, लेकिन टाप् प्रत्यय लगने से यह स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है !
अतः इस तरह अल्ला शब्द शक्ति स्त्री के लिए जानना चाहिए ! अल्लोपनिषद् के अल्ला शब्द में शक्ति का केंद्र स्त्रीलिंग है ! जो निर्माता होने के कारण पराशक्ति का वाचक है ।
यहां अल्ला का अल्लाह से किसी तरह का कोई संबंध नहीं है ! जबकि इस विषय को लेकर अनेक देशी तथा विदेशी विद्वानों में भ्रान्तियाँ हैं !
द थियोसोफिस्ट के एक अंक में, आर. अनंतकृष्ण शास्त्री ने लिखा है कि भारत में मुस्लिम शासन के समय में पंडितों ने आर्थिक लाभ या पुरस्कारों के लिये इस ग्रन्थ को लिखा होगा ! उन्होंने आगे यह भी लिखा है कि यह ग्रन्थ उपनिषदों की शैली में नहीं था बल्कि इसमें अरबी शब्दों का भी प्रयोग किया गया है ! यह विचार अंग्रेजों के समय में ब्राह्मणों को बदनाम करने की एक साजिश थी ! जिससे समाज को यह बतलाया जा सके कि ब्राह्मण पैसे के लिए मुगल शासकों की चापलूसी किया करते थे !
इसी तरह एक और विद्वान् भट्टाचार्य ने अल्लोपनिषद् को “इस्लामी कार्य” के रूप में वर्गीकृत किया और लिखा कि यह अकबर के एक हिंदू दरबारी द्वारा “अथर्ववेद के अपोक्रिफल अध्याय” के रूप में लिखा गया था ! जिस पर स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा गया है कि अल्लोपनिषद् उपनिषद अथर्ववेद में कहीं भी प्रकट नहीं होता है !
चार्ल्स एलियट ने मत दिया कि यह ग्रन्थ अकबर के “दीन-ए-इलाही” आंदोलन के दौरान लिखा गया हो सकता है ! जबकि स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि अल्लोपनिषद् स्पष्ट रूप से “दीन-ए-इलाही” आंदोलन के बहुत बाद की तारीख का है !
रवीन्द्रनाथ टैगोर के भाई देवेंद्रनाथ टैगोर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अलोपनिषद की रचना अकबर के दिनों में हिंदुओं को मुसलमान बनाने के उद्देश्य से की गई थी ! जिसका समर्थन करते हुये बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि अल्लोपनिषद् भारत के मुस्लिम शासकों के कुछ ब्राह्मण चापलूसों का बेशर्म उत्पादन था।
इसी विषय पर इब्राहीम एराली का कहना है कि यह पुस्तक मुगलों के समय में हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच विभिन्न संधि के प्रयास का प्रतीक है ! जो दोनों समुदायों को एक साथ लाने के लिये किया गया था !
जबकि अल्लोपनिषद् में प्रचलित तत्सम तथा तद्भव रूपों में अंतर देखने को मिलता है ! जिससे यह सिद्ध होता है कि उपरोक्त सभी अवधारणाएं झूठी हैं ! हो सकता है कि यह अवधारणाएं तथाकथित विद्वानों द्वारा अंग्रेजों की चाटुकारिता में ब्राह्मणों को नीचा दिखाने के लिये लिखी गई हों ! यह गंभीर शोध का विषय है !
मेरा स्पष्ट मत है कि यह ग्रंथ सनातन अस्वीकार्य धर्म ग्रंथ श्रंखला का अंश है क्योंकि इतिहास में ऐसे अनेक ग्रंथों का वर्णन मिलता है जिन्हें पूर्व के विद्वानों द्वारा रचित तो किया किंतु धार्मिक राजनीति के कारण उन्हें धर्म गुरुओं द्वारा धर्म ग्रंथ का अंश नहीं माना गया ! यही सहयोग इस ग्रन्थ के साथ भी हुआ है !
मेरे शोध का यह परिणाम है कि यह ग्रंथ अरब क्षेत्र के “मय ब्राह्मणों” द्वारा लिखा गया था ! जो मूलतः “रक्ष संस्कृति” के थे ! जो राम रावण युद्ध के दौरान लंका से पलायन करके शैव गुरु शुक्राचार्य जी की शरण में अरब आकर बस गये थे ! इन्हीं “मय ब्राह्मणों” ने “भविष्य पुराण” भी लिखा था ! जिसकी भविष्यवाणियां आज तक सही हो रही हैं !
इसीलिए भविष्य पुराण की लेखन शैली और अल्लोपनिषद् की लेखन शैली एक ही है !!