भारत में वैष्णव प्रपंच के दौरान भक्ति काल में फैलाये गये भ्रम के तहत समाज में यह अवधारणा विकसित हुई कि भगवान की पूजा करने से मनुष्य अपने जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लेता है !
जबकि सनातन धर्म के ज्ञानमार्गी विचारक इस तथ्य को सिरे से अस्वीकार करते हैं ! उनका मत है कि सृष्टि कार्य कारण की व्यवस्था के तहत चल रही है ! इसमें भगवान की पूजा करने मात्र से कुछ भी नहीं बदला जा सकता है !
जब तक की आप साधना द्वारा अपने मानसिक तरंगों को इतना अधिक विकसित नहीं कर लेते कि आपका संपर्क ब्रह्मांडीय तरंगों से जुड़ जाये !
क्योंकि जब किसी भी मनुष्य, जीव, जंतु, पशु, पक्षी, वनस्पति, जो आज किसी भी योनि में है, उसकी मानसिक तरंगे इतना अधिक विकसित हो जाती हैं कि वह ब्रह्मांड तरंगों से अपना संपर्क स्थापित कर लें ! तब इसके बाद जीव में कालगमन का सामर्थ्य पैदा हो जाता है !
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के उत्तरकांड में वर्णित कागभुशुंडी जी इसका जीता जागता प्रमाण हैं ! जो कि एक निकृष्ट पक्षी योनि के जीव हैं ! उन्होंने भी अपनी मानसिक शक्तियों को विकसित कर रामायण काल की घटना को 11 बार और महाभारत कालीन घटना को 16 बार देखा था !
यह सामर्थ उन्होंने अपने मानसिक शक्तियों को विकसित करके प्राप्त किया था, न कि किसी भगवान के रहमों करम से अर्थात एक साधना विहीन व्यक्ति के लिये भगवान भी अनुपयोगी है !
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक व्यक्ति अपनी मानसिक शक्तियों को विकसित नहीं कर लेता, तब तक उसके लिए भक्ति करना भी व्यर्थ का पुरुषार्थ है !
इस रहस्य को समझे बिना जो लोग अनावश्यक मंदिरों पर जाकर ढोलक मजीरा पीटते रहते हैं ! वह सभी अपने समय और ऊर्जा को व्यर्थ ही व्यय कर रहे हैं ! इसकी जगह इन्हें एकांत साधना करके अपनी मानसिक शक्तियों को विकसित करने पर विशेष ध्यान देना चाहिए !!