सत्यता : कोई अगर अपनी श्रध्दा और विश्वास से सुख पूर्वक जी रहा है और वह पत्थर में भी देवता देख रहा है, इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? तुम्हें नहीं मानना मत मानो, कोई कहने भी नहीं आ रहा है कि तुम भी मानो ही ! इस्लाम और ईसाईयत भी तो सनातन देवी देवता का विरोध करते हैं ! क्या अंतर है तुममे उनमें ?
स्वामी दयानन्द का निश्चित मत था कि मूर्तिपूजा आर्य जाति की समस्त त्रुटियों का केन्द्र है ! अपने अमर ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” में उन्होंने मूर्तिपूजा पर अपने विचार इस प्रकार दिये हैं कि
‘जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना यह एक ऐसी बात है कि जैसे चक्रवर्ती राजा को एक राज्य की सत्ता से छुड़ाकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी मानना हो ! देखो ! यह एक कितना बड़ा अपमान है, वैसा ही तुम मूर्ति पूजा करके परमेश्वर का भी अपमान करते हो !’
‘जब तुम भगवान को व्यापक मानते हो, तो वाटिका से पुष्प-पत्र तोड़कर क्यों चढ़ाते हो ? चन्दन घिसकर क्यों लगाते हो ? धूप को जलाकर धुआं क्यों देते हो ? घंटा, घड़ियाल, झांज पखावजों को लकड़ी से कूटना पीटना क्यों करते हो ? वह तुम सिर उसे क्यों नमाते हो ? भोग में अन्न, फल, जलादि क्यों नैवेद्य चढ़ाते हो ? स्नान क्यों कराते हो ? जबकि सब पदार्थों में ईश्वर विद्यमान है, वह परमात्मा व्यापक है और तुम व्यापक की उपासना करते हो या व्याप्य की ? यदि व्यापक की करते हो तो पत्थर, लकड़ी आदि पर चन्दन पुष्पादि क्यों चढ़ाते हो, और व्याप्य की करते हो तो, ‘हम ईश्वर की पूजा करते हैं’ ऐसा झूठ क्यों बोलते हो ? ‘हम पाषाण के पुजारी हैं’ ऐसा सत्य क्यों नहीं बोलते ?
दरअसल जैसे कि ऊपर बताया गया कि आर्य समाज का मुख्य लक्ष्य सनातन धर्म के श्रध्दा और विश्वास को तोड़ना है ! अत: उसे पाखंड या अंधविश्वास का नाम दे कर विरोध शुरू कर दिया ! जिन आस्थाओं से सनातन धर्मी एकत्र होता है उन्हीं सनातन की जड़ों को काटना आर्य समाजियों का लक्ष्य है !
आर्य समाजी कहते हैं कि दयानंद ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद आदि के पाखण्डों से लोगों को मुक्त किया था किन्तु वेद को प्रमाण न मानने, पुनर्जन्म को स्वीकार न करने, यज्ञादि वैदिक कर्मकाण्ड का तिरस्कार करने के कारण सनातन धर्मी हिन्दुओं ने आर्य समाज के सिधान्तों को अस्वीकार दिया था ! जगह जगह दयानंद को अपमानित करके भगा दिया जाता था !
इस संबंध में सनातन धर्मी हिन्दुओं ने स्वयं लिखा है कि
दयानंद ब्रह्म समाजी और प्रार्थना समाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत विद्या से रहित, अपने को विद्वान् प्रकाशित करने वाला, इंगलिश भाषा पढ़ के पण्डिताभिमानी होकर एक नवीन “मत पंथ” चलाने में प्रवृत्त है, जो मनुष्यता के लिये खतरा है !’
इस प्रकार स्वामी जी ने भारतीय मत मतान्तरों की समीक्षा एवं आलोचना करने के पश्चात् यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि सच्चा धर्म एक ही है तरह तरह के अवतारों की मूर्तियों का पूजन गलत है !
सनातन धर्म के दुश्मन दयानंद यह भी अच्छे से जानते थे कि रीति रिवाज, त्यौहारों आदि के संचालक ‘ब्राह्मण’ ही सनातन धर्म की नींव हैं ! अगर यह नहीं रहे तो सनातन धर्म का कोई अस्तित्व नहीं होगा ! इसीलिये ब्राह्मणों को बदनाम करना उन्हें अपमानित करना आवश्यक है ! यह आज भी आर्य समाजियों का मूल स्वभाव है !
मजे की बात है कि आर्य समाजी ब्राह्मणों का विरोध भी करते हैं लेकिन ब्राह्मणों के द्वारा लिखे ‘वेदों’ को ही मानते भी हैं और दूसरी तरफ उन्हीं ब्राह्मणों के लिखे पुराण या अन्य धर्म ग्रन्थों को बदनाम करते हैं ! यह कृत्य ही आर्य समाजियों को बुरी तरह नंगा कर देता है !