वाल्मीकीय रामायण में और तुलसीदासकृत रामचरितमानस सीताहरण का विस्तृत विवरण मिलता है । संबंधित कथा अरण्यकांड में उपलब्ध है । सीता का लक्ष्मण द्वारा समझाये जाने और फिर उनका रावण के साथ संपन्न वार्तालाप का प्रकरण 45वें से 49वें सर्ग में कुल 192 श्लोकों के माध्यम से वर्णित है । अपनी बात कहने के लिए मैं इन सर्गों के कुछ चुने हुए श्लोकों को उद्धृत कर रहा हूं । जब राम द्वारा वन में मारीच का वध होता है और वह ‘हा लक्ष्मण’ की पुकार लगाकर सीता को भ्रमित करता है :-
आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि ।
तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् ॥
रक्षसां वशमापन्नं सिंहानामिव गोवृषम् ।
न जगाम तथोक्तस्तु भ्रातुराज्ञाय शासनम् ॥
तमुवाच ततस्तत्र क्षुभिता जनकात्मजा ।
सौमित्रे मित्ररूपेण भ्रातुः त्वमसि शत्रुवत् ॥
यस्त्वमस्यामवस्थायां भ्रातरं नाभिपद्यसे ।
इच्छसि त्वं विनश्यन्तं रामं लक्ष्मण मत्कृते ॥
(वाल्मीकिरचित रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग 45, छन्द 3-6)
(उस समय बेचैन हो रही सीता देवर लक्ष्मण से कहती हैं) “अरे लक्ष्मण, वन में आर्त स्वर से पुकार रहे अपने भ्राता को बचाने चल पड़ो । तुम्हारी सहायता की अपेक्षा रखने वाले अपने भाई के पास शीघ्रता से जाओ । वे राक्षसों के वश में पहुंच रहे हैं जैसे कोई सांड़ सिंहों से घिर जाये ।” किंतु ऐसा कहे जाने पर भी लक्ष्मण अपने भाई के आदेश को विचारते हुए वहां से नहीं हिले । तब उस स्थल पर (लक्ष्मण की उदासीनता से) क्षुब्ध हो रहीं जनकपुत्री ने कहा “अरे सुमित्रानंदन, तुम तो मित्र के रूप में अपने भाई के शत्रु हो, जो कि तुम इस (संकट की) अवस्था में भाई के पास नहीं पहुंच रहे हो । तुम मेरे खातिर राम का नाश होते देखना चाहते हो ।”
वस्तुतः सीता ने लक्ष्मण पर यह आक्षेप लगा दिया कि तुम इस ताक में हो कि राम न रहें, ताकि मौके का लाभ उठाते हुए तुम मुझे अपनी भार्या बना सको । उन्होंने लक्ष्मण पर तरह-तरह के लांछन लगाते हुए अपशब्द कहना आरंभ किया । प्रत्युत्तर में लक्ष्मण ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की:
अब्रवील्लक्ष्मणस्तां सीतां मृगवधूमिव ।
पन्नगासुरगन्धर्वदेवदानवराक्षसैः ॥
अशक्यस्तव वैदेही भर्ता जेतुं न संशयः ।
(पूर्वोक्त, सर्ग 45, छन्द 10, 11 का पूर्वार्ध)
हिरणी की भांति डरी-सहमी-सी सीता को (ढाढ़स बधाते हुए) लक्ष्मण बोले, “हे विदेहनंदिनी, इसमें तनिक भी शंका नहीं है कि आपके पति श्रीराम नाग, असुर, गंधर्व, देव, दानव और राक्षसों के द्वारा भी नहीं जीते जा सकते हैं ।” (फिर क्यों इतनी चिंतित हो रही हैं ?)
राक्षसा विविधा वाचो आहरन्ति महावने ।
हिंसाविहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि ॥
लक्ष्मणेनैवमुक्ता तु क्रुद्धा संरक्तलोचना ।
अब्रवीत्परुषं वाक्यं लक्ष्मणं सत्यवाहदनम् ॥
(पूर्वोक्त, सर्ग 4, छन्द 19-20)
हे वैदेही, आप चिंता न करें, इस बड़े वन में राक्षसगण, जिनका मनोरंजन ही हिंसा में निहित रहता है, नाना प्रकार की बोलियां बोलते रहते हैं । लक्ष्मण के ऐसा कहने पर क्रुद्ध तथा रक्तिम हो चुकी आंखों वाली सीता सत्यवादी लक्ष्मण को कटु शब्द कहने लगीं ।
सीता ने बहुत कुछ भला-बुरा कहा जिससे लक्ष्मण का विचलित होना स्वाभाविक था । तब न चाहते हुए भी उन्होंने राम के पास चले जाना ही उचित समझाः
ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः कृताञ्जलि किञ्चिदभिप्रणम्य ।
अवेक्षमाणो बहुशः स मैथिलीं जगाम रामस्य समीपमात्मवान् ॥
(पूर्वोक्त, सर्ग 45, छन्द 40)
तब हाथ जोड़े हुए आत्मसंयमी लक्ष्मण ने नतमस्तक हो सीता को प्रणाम किया और उनकी ओर (चितिंत दृष्टि से) बारंबार देखते हुए वे श्रीराम के पास चले गये ।
तदासाद्य दशग्रीवः क्षिप्रमन्तराश्रितः ।
अभिचक्राम वैदेहीं परिव्राजकरूपधृक् ॥
(पूर्वोक्त, सर्ग 46, छन्द 2)
और तब संन्यासी का रूप धरे रावण को उपयुक्त अवसर मिल गया, अतः वह शीघ्रता से वैदेही सीता के पास आ पहुंचा ।
अब गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस के अरण्यकाड के अनुसार आप इस चौपाई पर ध्यान दीजियेः
“मरम बचन जब सीता बोला।
हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू।
चले जहाँ रावन ससि राहू।”
इस पर जब सीताजी कुछ मर्म वचन कहने लगीं तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मण जी का मन चँचल हो उठा। वे श्रीसीता जी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौंपकर वहाँ चले ! जहाँ रावण रूपी चंद्रमा के लिए राहुरूपी श्री राम जी थे।
उपर्युक्त बातें संक्षेप में यह स्पष्ट करने के लिए कही गयी हैं कि बाल्मीकि के अनुसार लक्ष्मण ने सीता को समझाने की भरसक कोशिश की थी, किंतु अंत में उन्हें विवश होकर सीता को पर्णकुटी पर अकेले छोड़कर जाना पड़ा । अवसर पाकर रावण सीता के पास आया, दोनों के बीच परस्पर परिचय के साथ विस्तार से बातें हुई, और अंत में कुपित होकर वह सीता को हर ले गया । कथा में कहीं पर किसी सुरक्षा घेरे का जिक्र नहीं है ।
इस तरह वाल्मीकि रामायण तथा रामचरितमानस में लक्ष्मण रेखा का जिक्र नहीं है और न ही तुलसी की मानस में भी इस बारे में कुछ लिखा है । लक्ष्मण रेखा की कल्पना बाद के कथाकारों और कथावाचकों की देन है । जिन्होंने यह द्रष्टान्त बंगाल के काले जादू वाले काल में काले जादू के महत्व को बतलाने के लिये “कृतिवास रामायण” में तंत्र मंत्र के प्रभाव में रोचकता लेन के लिये “लक्ष्मण रेखा” की बात कही है । इसका यथार्त घटना से कोई लेने देना नहीं है !