महर्षि वाल्मीकि का मूल नाम रत्नाकर था और इनके पिता ब्रह्माजी के मानस पुत्र प्रचेता थे ! ब्रह्मर्षि भृगु के वंश में उत्पन्न ब्राह्मण थे ! जिसकी पुष्टि स्वयं वाल्मीकि रामायण और महाभारत नामक ग्रन्थ से होती है !
‘“संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्र कम् ! उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना !! ( वाल्मीकिरामायण ७/९४/२५)’ महाभारतमें भी आदिकवि वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव) कहा है, और यही भार्गव रामायणके रचनाकार हैं – ‘“श्लोकश्चापं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना ! आख्याते रामचरिते नृपति प्रति भारत !!” ‘(महाभारत १२/५७/४०)
एक भीलनी ने बचपन में इनका अपहरण कर लिया गया था और भील समाज में इनका लालन पालन हुआ ! भील परिवार के लोग जंगल के रास्ते से गुजरने वालों को लूट लिया करते थे ! जिनकी संगति में महर्षि वाल्मीकि भी दस्यु व्यवसाय में लिप्त हो गये !
किंतु कुछ ही समय बाद जब इन्हें राजा जनक के विषय में जानकारी प्राप्त हुई तो उन्होंने मिथिला की यात्रा की जहां पर राजा जनक के प्रभाव से उनका संपूर्ण व्यक्तित्व ही बदल गया और उन्होंने दस्यु व्यवसाय को छोड़कर भगवान शिव की भक्ति प्रारंभ कर दी !
इसके साथ ही उन्हें मिथिला में उन्हें राजा जनक के विदेह योग अवस्था की जानकारी भी प्राप्त हुई तथा यह भी जानकारी मिली कि उनकी पुत्री सीता भी अपने पिता के समान ही तेजस्वी साधिका थी ! इसलिए उन्हें भी वैदेही भी कहा जाता था ! महर्षि वाल्मीकि सीता के ज्ञान, तप और त्याग से अत्यंत प्रभावित हुये !
और उन्हें प्रेरणा मिली कि जब एक कन्या होकर सीता इतनी बड़ी ज्ञानी, तपस्वी और त्यागी हो सकती है, तो मैं भी ज्ञानी, तपस्वी और त्यागी क्यों नहीं बन सकता हूं ? यहीं से महर्षि वाल्मीकि के जीवन में परिवर्तन आया और उन्होंने दस्यु व्यवसाय को छोड़ कर तमसा नदी के तट पर एक आश्रम की स्थापना की !
आश्रम की स्थापना करने के उपरांत उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के लिए भगवान शिव की बहन देवी सरस्वती की आराधना की ! जिससे उनके अंदर काव्य गुण की उत्पत्ति हुई और वह आदि महाकवि बन गये !
कालांतर में उनके अद्भुत काव्य ज्ञान के कारण उनकी मित्रता प्रयागराज के भारद्वाज ऋषि से हो गयी थी ! वह भी राजा जनक और उनकी पुत्री सीता के गुणों से बहुत प्रभावित थे !
एक दिन राम ने रावण का वध कर दिया था और राम अयोध्या के राजा बन गये थे, पर सीता को लंका निवास के कारण अब रघुवंश में सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता था ! तब सुबह तमसा नदी के अत्यंत निर्मल जल वाले तीर्थ पर मुनि वाल्मीकि और भारद्वाज ऋषि स्नान के लिए गये !
तो वहां नदी के किनारे पेड़ पर क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा अपने में मग्न था, तभी व्याध ने इस जोड़े में से नर क्रौंच को अपने बाण से मार गिराया ! रोती हुई मादा क्रौंच भयानक विलाप करने लगी ! इस हृदयविदारक घटना को देखकर वाल्मीकि का हृदय इतना द्रवित हुआ कि उनके मुख से अचानक श्लोक फूट पड़ा:-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा !
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ! !
अर्थात- निषाद ! तुझे कभी भी शांति न मिले, क्योंकि तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली !
महर्षि वाल्मीकि ने जब भारद्वाज से कहा कि यह जो मेरे शोकाकुल हृदय से फूट पड़ा है, उसमें चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमें मानो तंत्र की लय गूंज रही है अत: यह श्लोक के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता !
पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित: !
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा ! !
करुणा में से काव्य का उदय हो चुका था, जो वैदिक काव्य की शैली, भाषा और भाव से एकदम अलग था, नया था और इसीलिए वाल्मीकि को माता सरस्वती का आशीर्वाद मिला कि तुमने काव्य रचा है, तुम आदिकवि हो, अपनी इसी श्लोक शैली में वैदेही के त्याग की कथा लिखना, जो तब तक दुनिया में रहेगी, जब तक पहाड़ और नदियां रहेंगे-
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले !
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति ! !
इस तरह महर्षि वाल्मीकि नहीं भरद्वाज की प्रेरणा माता सीता के त्याग पर एक ग्रंथ का निर्माण किया ! जिसे “वैदेही चरित्र” नाम दिया गया ! जो मुख्य रूप से माता सीता के त्याग पूर्ण चरित्र पर निर्भर था ! जिस ग्रंथ की शुरुआत माता सीता के जन्म से लेकर सीता के भूमि में समा जाने तक की सभी घटनाओं का जागृत लेखन था !
कालांतर में इसी ग्रंथ में वैष्णव लेखकों द्वारा बालकांड को जोड़कर ने इसे “राम अरण्य” नाम दे दिया ! अर्थात भगवान राम की अरण्य यात्रा ! जिसे बाद में इसका नाम राम और अरण्य मिलाकर “रामायण” पड़ गया !
जबकि महर्षि वाल्मीकि का रामायण से कोई लेना-देना नहीं था ! उन्होंने तो मात्र राजा जनक की पुत्री वैदेही के चरित्र अर्थात उनके त्याग की घटनाओं पर काव्य रचना की थी !
वाल्मीकि जब अपनी ओर से “वैदेही चरित्र” ग्रन्थ की रचना पूरी कर चुके थे ! तब राम द्वारा परित्यक्ता, गर्भिणी सीता भटकती हुई उनके आश्रम में आ पहुंची ! बेटी की तरह सीता को उन्होंने अपने आश्रय में रखा ! वहां सीता ने दो जुड़वां बेटों, लव और कुश को जन्म दिया ! दोनों बच्चों को वाल्मीकि ने शास्त्र के साथ ही शस्त्र की शिक्षा प्रदान की ! जो उन्होंने सीता के आने के बाद फिर से लिखनी शुरू की और उसे “उत्तरकांड” नाम दिया !
इन्हीं वैदेही माता सीता के बच्चों ने वाल्मीकि द्वारा लिखी गयी “वैदेही चरित्र” ग्रन्थ का गायन करके राम के दरबार में अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर राम को माता सीता की याद करवाई !
इसी काव्य से प्रभावित होकर राम पुनः सीता से मिलने बाल्मीकि आश्रम गये और वहां पर राम के अहंकार से क्षुब्ध होकर सीता ने भू समाधि ले ली !
जिस घटना के बाद राम अनिद्रा रोग से ग्रसित हो गये और अंततः सरजू नदी में जल समाधि ले ली !
अतः इस तरह कहा जा सकता है कि महर्षि बाल्मीकि ने कभी भी रामायण नामक किसी भी ग्रंथ का निर्माण नहीं किया था बल्कि उन्होंने माता सीता के त्याग से प्रभावित होकर वैदेही चरित्र का निर्माण किया था ! जिसमें वैष्णव लेखकों ने जबरजस्ती बालकांड जोड़कर उस “वैदेही चरित्र” ग्रन्थ को “रामायण” ग्रन्थ बना दिया !!
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